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प्रकार की हिन्दू और बौद्ध सामग्री भी प्राप्त हुई है जिससे ज्ञात होता है कि जैन धर्म की बढ़ती देखकर, हिन्दुओं और बौद्धों ने भी मथुरा को अपना केन्द्र बना लिया था। यह स्थान प्राचीन काल में जैनियों का अतिशय क्षेत्र था।
डा. फ्यूरर को इसी टीले से एक जैन स्तूप भी मिला था । स्तूप की एक ओर विशाल मन्दिर दिगम्बर सम्प्रदाय का और दूसरा श्वेताम्बर सम्प्रदाय का मिला, पर वे खनन कार्य की असावधानी से छिन भिन्न हो गये। खोदने के समय के फोनों में ये तथ्य अब भो मौजूद हैं। लेख नं० ५६ से ज्ञात होता है कि इस स्तूप का नाम 'देवनिर्मित वोद स्तूप' था। लेख एक प्रतिमा की चोकी पर पाया गया है जो उक्त स्तूप पर प्रतिष्ठित की गई थी । लेख में कुषाण संवत् ७६ दिया गया है। इस संवत् में कुषाण नरेश वासुदेव का राज्य था । हेल्ली सन् की गणना में इस मूर्ति की प्रतिष्ठा ७+७८-१५७ ईस्वी में हुई थी। उस समय भी यह स्तूप इतना पुराना हो गया था कि लोग इसके वास्तविक बनाने वाले को एकदम भूल गये थे और उसे देवों का बनाया ( देवनिर्मित) हुया मानते थे। इससे प्रतीत होता है कि 'वोद्ध स्तूप' बहुत ही प्राचीन स्तूप था विसका कि निर्माण कम से कम ईसा पूर्व ५-६ वीं शताब्दी में हुअा होगा। इस अनुमान की पुष्टि का दूसरा प्रमाण यह भी है कि तिब्बतीय विद्वान् तारनाथ ने लिखा है कि मौर्य-काल की कला यक्ष-कला कहलाती थी और उससे पूर्व की कला देवनिर्मित-कला। अतः सिद्ध है कि कंकाली टीले का स्तूप कम से कम मौर्यकाल से पहले अवश्य बना था। जिनप्रभ सूरि (१३ वी १४ वी १ नं० ) ने विविधतीर्थकल्प में लिखा है कि पहले यह स्तूप स्वर्ण का बना था, इसमें रत्न बड़े थे, इसे मुनि धर्मरुचि और धर्मघोष की इच्छा से कुबेरा देवी ने सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ की पुण्यस्मृति में बनवाया था। तत्पश्चात् २३ वें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ के समय में इसका निर्माण ईटों से हुआ था और पाषाण का एक मन्दिर इसके बाहर बनाया गया था। पुन: वीर भगवान् के केवलज्ञान प्राप्त करने के १३०० वर्ष बाद बप्पभहि सूरि ने इस स्तूप को भग० पार्श्वनाथ के नाम पर अर्पण करने के लिए इसकी मरम्मत कराई थी। भाग० महावीर को केवलशान की