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________________ ऊपर उठ गया था। उसने गहों को बहुत समय से पराधीन देख उन्हें मुक्त किया पर उनके उद्धत स्वभाव के कारण पुनः बांध दिया । गङ्ग वंश के पराधीन होने की बात सन् ८६० के कोन्नूर से प्राप्त एक लेख ( १२७ ) से भी ज्ञात होती है । इतिहासज्ञों का अनुमान है कि गण वंश के इन बुरे दिनों में शिवमार द्वितीय उक्त वंश की गद्दी पर था । उसने राष्ट्रकूट वंश की अधीनता मान ली थी। इस राजा के सम्बन्ध में लेख नं० १८२ में लिखा है कि यह राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष प्रथम (८१४-८७७ ई०)का पञ्चमहाशब्दधारी महामण्डलेश्वर था । इसने कल्भावी में एक जैन मन्दिर बनवाकर उसके लिए एक गांव दान में दिया था। ___ इसके बाद भी जैनधर्म की परम्परा इस वंश के नरेशों में बराबर चलती रही। लेख नं० १३१ से ज्ञात होता है कि सन् ८८७ में सत्यवाक्य कोगुणिवर्मा ने अपने राज्याभिषेक के १८ वे वर्ष में एक जैन मन्दिर के उद्देश से भट्टारक सर्वनन्दि के लिए १२ गांव दान में दिए थे। इतिहासज इस राजा को राचमल्ल द्वितीय मानते हैं जिसे राष्ट्रकूट नृप कृष्ण द्वितीय ने हराया था। इस लेख में और इसके बाद के लेखों में इस वंश की राजधानी का नाम कुवलालपुर ( वर्तमान कोलार ) और किले का नाम उच्च नन्दगिरि नाम दिया गया है। लेख नं. १३८ से विदित होता है किं सत्यवाक्य ( राचमल्ल द्वितीय) तथा उनके भतीजे एरेयप्परस ( चतुर्थ ) ने कुमारसेन भट्टारक को दान दिया था। ले० नं० १३६ के अनुसार एयप्परस के पुत्र नीतिमार्ग अर्थात् राचमल्ल तृतीय का राज्य उत्तरोत्तर बढ़ रहा था। उसने कनकगिरि तीर्थक्सदि को दुगुना कर भट्टारक कनकसेन को दान दिया । सूदी से प्राप्त सन् ६३८ का एक लेख (१४२ ) इस वंश के इतिहास की दृष्टि से बड़े महत्त्व का है। इसमें गंगवंश की श्रादि से लेकर बूतुग द्वितीय तक सारे राजाओं की वंशावली दी गई है तथा कहीं कहीं उनके राजनीतिक महत्त्व के कार्यों का भी उल्लेख किया गया है । इस लेख में लिखा है कि बूतुग द्वितीय ने अपनी पत्नी द्वारा निर्मापित एक जैन मन्दिर के लिए कुछ भूमि दान में दी।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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