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पाम्बब्बे ने, जो अभयनन्दि पण्डितदेव की शिष्या नाणब्बेकन्ति की शिष्या थो, केशलोंच करने के बाद तप के पूरे ३० वर्ष पूर्ण किए और पांच अणुव्रतों (१) को धारण कर दिवंगत हुई । लेख में उसके व्रत एवं तपस्या की प्रशंसा है।
कोङ्गाल्व वंश की जैनधर्म के प्रति भक्ति सुविदित है। उक्त वंश के राजा राजेन्द्र कोङ्गाल्व की मां पोच्चब्बरसि ने सन् १०५० में एक बसदि बनवायी थी, और उसमें अपने गुरु गुणसेन पण्डितदेव की मूर्ति स्थापित की थी तथा सन् १०५८ में उसने उक्त बसदि को भूमिदान दिया था (१८८, १८१) ले.नं. ५६० में कोङ्गाल्व वंश की एक और महिला सुगुणिदेवी का नाम दिया गया है जिसने अपनी माता के पुण्यार्थ एक प्रतिमा की स्थापना की और भूमिदान दिया।
जैन सेनापतियों की परिनयों का भी जैनधर्म की सेवा में बड़ा हाथ था। इनमें सबसे उल्लेखनीय नाम है सेनापति गंगराज की पत्नी लक्कले या लक्ष्मीमती का। वह लक्ष्मोमती दण्डनायकिति कहलाती थी। उसे लेख नं०२५८ (प्रथम भाग, ६३, में गंग सेनापति के 'कार्ये नीतिवधू' और 'रणे जयवधू' कहा गया है। उसने सन् १९१८ में श्रवणवेल्गोल में एक जिनालय वनवाया था। ले० नं० २६८(प्रथम भाग ५६) से ज्ञात होता है कि सेनापति गंगराज ने अपने राजा विष्णुवर्धन से एक गांव पारितोषिक रूप में पाकर अपनी माता पोचल देवी एवं अपनी भार्या लक्ष्मी देवी द्वारा निर्मापित जैन मन्दिरों के रक्षार्थ अर्पण किया था। लक्ष्मीमति ने भी श्राहार, अभय, औषधि और शास्त्र इन चारों दानों
को देकर 'सौभाग्यखानि' पद पाया था ( २५५, प्रथम भाग, ४७)। ले० नं. .२७९ (प्रथम भाग, ४८ ) में लक्ष्मोमति के रूप, गुण, शाल श्रादि की प्रशंसा की गई है। इस धर्मपरायण महिला ने सन् १९२१ में संन्यास विधि पूर्वक शरीर त्यागा था। सेनापति गङ्गाराज ने अपनी साध्वी पत्नी की स्मृति में एक निषद्या बनवा दी थी।
गङ्गराज के बड़े भाई का नाम बम्मदेव चभूप था। इसकी पत्नी अक्कमब्वे थी जो कि दण्डनायकीति कहलाती थी। वह सेनापति बोप्प की माता थी तथा "एमचन्द्रदेव की शिष्या थी। प्रथम भाग के ले० नं. ४६ और ४८e से संत