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जैन-शिलालेख संग्रह
४६. पारवनाथ(य)स्वामिय अमृतपडिगे मल्लिलद-कम्बुळदल्लि अक्किय मूडे
३० आ मीलण दडि-मरुगळल्लि मूडे ४ [नल्लूर नं० [बि ] बेटि
नारणनल्लि ४७. अ [ कि ] मूडे ६ अं [तु ] मू [डे ] ४० [2] लवसेय सेटि-बेटिन
हित्तिल [फ] लदल्लि [ग] ८ म २३ [॥] [इ ] दु पञ्च-संसार
कालोरग-दष्ट-गाढ़-मूञ्छित-नाना-संसारि-जीव-प्रबोधनक४८. र-पञ्च-महा-कल्याण-[बी] जोपम [ बाद ] जिनमन्त्र-पूतात्मन । श्री
वीतराग। येम्ब पञ्चाक्षरियनु पञ्चविशति-मल-विदूर-परम-सम्यग्दृष्टिगळाद
कारण आ भैरर४६. स-वोडेयरे स्व-हस्तदिंद वो [प्प कोट्टु ] ददक्के इन्द्रवज्रा-[ वृत्त ] दिन्द
[ चतुर्विंशत्य ] - क्षर-लिखित-पञ्चाक्षररूप-सर्वतोभद्र-चित्र-प्रबन्धदि [द ]
रचिसिद चि [त् ] र५०. श्लोक ॥ श्री-वीत-वीरागत-वीग-वीतं
श्री-राग-वीतं गतराग रागम् । . श्रीगं ततं रागतरांगरा [ङ्गं]|
___ श्री वीतराग तत-वी [ र]-गं तम् ॥ @ ॥८॥ [ मंगलाचरणके बाद इस लेखमें (श्लो० २ और ३ ) तीर्थंकरों, दो बलि (बाहुबलि ) और पोम्बुच्चकी पद्मावती देवीके आशीर्वादका दाता भैरव या भैरवेन्द्र, जिनको भैररस-वोडेय तथा इम्मडि भैररस वोडेय कर्णाटक गद्यमें कहा गया है, के लिये आह्वान किया गया है। इस सरदारको हम एकदम भैरव-द्वितीय कह सकते हैं। इन्हीं के मामाको इसी लेखमें ( श्लो. ५) भैरव प्रथम कह सकते हैं, जिनका नाम भैरवराज दिया है। आगे लेखसे पता चलता है कि ललितकीर्ति मुनीन्द्र, जो पनसोगे शाखा (गच्छ ) देशीगणके थे, उनके उपदेशसे भैरव द्वि० ने 'रत्नत्रय' (श्लो० ५ तथा ७ वे श्लोक के बादके कन्नड़गद्यमें ) मन्दिर, जिससे स्पष्टतः चतुर्मुख बस्तो का मतलब है, बनवाया था । श्लोक ६ तथा इसके बादके कन्नड़ गद्यमें