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नं० २६३, २६४, २८३, २८७, २८६, ३०४, ३४८, ३६३ एवं ४०३ में विष्णुवर्धन के अनेकों विरुदों तथा प्रतापादि का उल्लेख है । उसके बाठ जैन सेनापतियों
गङ्गराज, बोप्प, पुलिस, बलदेव, मरियाने, भरत, ऐन्च एवं विष्णु ने अनेकों महत्व के युद्धों में उसे विजय प्रदान कर उसके राज्य को मजबूत बनाया था । लु० राइस महोदय की मान्यता है कि सन् १९१६ ई० के पहले विष्णुवर्धन ने जैन धर्म को छोड़कर रामानुजाचार्य के प्रभाव में चाकर वैष्णव धर्म ग्रहण कर लिया था । सत्य जो हो पर उसके मन पर जैन प्रभाव और कृतज्ञता इतनी अधिक थी कि जैनत्व के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति में उसने कमी नहीं की थी। लेख नं० २८७ और ३०१ से ज्ञात होता है कि सन् ११२५ और ११३३ ई० में भी जैन धर्म के प्रति श्रद्धालु था । २८७ वे लेख के अनुसार उसने चोल सामन्त श्रदियम, पल्लव नरसिंह वर्म, कोङ्ग, कलपाल तथा अङ्गरन के राजाओं को पराजित किया था तथा पीछे वसदियों के जीर्णोद्धार के हेतु तथा ऋषियों को आहार दान देने के लिए, अपने जैन गुरु द्रविड़ संघ के श्रीपाल त्रैविद्य देव को चल्य ( शल्य ) नामक ग्राम दान में दिया था । लेख नं० ३०१ ( सन् १९३३ ) से विदित होता है कि उसके एक सेनापति बोपदेव द्वारा हनसोगेबलि के द्रोहघरट्ट जिनालय की स्थापना के बाद जिस समय पुरोहित लोग चढ़ाये हुए भोजन ( शेषा ) को विष्णुवर्धन के पास बकापुर ले गये, उसी समय वह एक शत्रु पर विजय प्राप्त कर आया था, तथा उसकी रानी लक्ष्मी महादेवी से पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ था । उसने उनका स्वागत कर प्रणाम किया और यह समझकर कि इन्हीं पार्श्वनाथ भग०की स्थापना से उसे युद्ध में विजय, पुत्रोत्पत्ति एवं सुख समृद्धि मिली है, उसने देवता का नाम विजयपार्श्व तथा पुत्र का नाम विजय नरसिंह देव रखा था । ले० नं० २८३२ से ज्ञात होता है कि उसकी एक पत्नी शान्तलदेवी जैन धर्म परायणा था । उसकी एक उपाधि थी उद्वृत्तसवतिगन्धवारणे अर्थात् उच्छङ ख सौतों के लिए मत्त हाथी । उसने श्रवणबेलगोल में 'सवति गन्धवारण' वसदि भी बनवायी थी । उसके श्रनेक १. वही - (२८३ से क्रमशः) ले ० नं० ५६, ४६३, ५३, १४४, १३८, १२४, १३७॥ २. वही - ले० नं० ५६