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जात होते हैं जो कि भाषाशास्त्र की दृष्टि से बड़े महत्व के हैं। अधिकांश नाम अपभ्रश और तत्कालीन लोक भाषा के रूप को प्रकट करते हैं।
प्रस्तुत लेख संग्रह से ज्ञात सांस्कृतिक इतिहास का एक छोटा चित्र यहाँ दिया जाता है । लोग अपने कल्याण के लिए, माता, पिता, भाई, बहिन श्रादि के कल्याण के लिए, गुरु के स्मृत्यर्थ, राजा, महामण्डलेश्वर आदि के सम्मानार्थ मंदिर या मूर्ति का निर्माण कराते थे और उनकी मरम्मत, पूजा, ऋषियों के श्राहार, पुजारी की आजीविका, नये कार्यों के लिये तथा शास्त्र लिखने वालों के भोजन के लिए दान देते थे। दातव्य वस्तुओं में ग्राम, भूमि, खेत, तालाब, कुत्रा, दुकान, भवन, कोल्हु, हाथ के तेल की चक्की, चावल, सुपारी का बगीचा, माधारण बगीचे, चुंगी से प्राप्त आमदनी, तथा निष्क,पण, गद्याण,होन्नु (ये सब एक प्रकार के सिक्के हैं ) घी एवं मुफ्त श्रम आदि हैं। एक लेख ( १६८ ) में ब्राह्मण को कुमारिकाओं की भेंट का उल्लेख है जो देवदासी प्रथा की याद दिलाता है। ग्राम या भूमि के दान में प्रायः यह ध्यान रखा जाता था कि वे दान सर्व करों से मुक्त कराकर दिये जाय ( २२६,४०४ अादि)। उत्सवों पर ही दान देने की प्रथा थी। बहुत से लेखों से ज्ञात होता है कि दानादि द्रव्य, चंद्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, उत्तरायण-संक्रांति या पूर्णिमा आदि के दिन दान दिये जाते थे ( १०२ १२७,३०१,६४६ आदि ) । मूर्तियों के निर्माण में हम देखते हैं कि लोग प्रायः तीर्थकरों की मूर्तियाँ बनवाते थे-उनमें विशेषतः आदिनाथ, शान्तिनाथ, चंद्रप्रभ, कुथुनाथ, पार्श्वनाथ एवं वर्धमान की मूर्तियाँ होती थीं। तीर्थकरों के अतिरिक्त हम दक्षिण भारत में वाहुबली की मूर्ति भी देखते हैं । भक्त या शिव्यगण अपने प्राचार्यों की मूर्तियाँ या पादुका (चरण) भी बनवाते थे। यक्ष-र्याक्षणियो की पूजा भा प्र_लत थी। हुम्मच पद्मावती का पूजा का प्रमुख केन्द्र था। लेखों में अम्बिका देवी ( ३४६) और ज्वालामालिनी ( ७५८) की मूर्तियो का भी उल्लेख मिलता है । प्रतिमाएँ प्रायः पाषाण और धातु को बनती थीं, पर एक लेख (१६७ ) में पंच धातु की प्रतिमा का उल्लेख है। मंदिर प्रायः पाषाण या ईट के बनते थे, पर कुछ लेखों ( २७७,२०४ ) में लकड़ी