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जगदेकमल्लवादी थीं । वादिराज भी हमें एक उपाधि मालुम होती है, क्योंकि लेख नं० ३४७ में इनका असली नाम श्री वर्धमान जगदेकमल्ल वादिराज दिया गया है । इनके धर्मा रूपसिद्धि नामक व्याकरण ग्रन्थ के कर्ता दयापाल थे । मलिषेण प्रशस्ति ( २६०, प्रथम भाग ५४ ) में उपर्युक्त पट्टावली के अनेकों श्राचायों का उल्लेख तथा प्रशंसावाक्य दिये गये हैं । उसमें वादिराज के गुरु का नाम मतिसागर दिया गया है और दयापाल को उनका धर्मा माना गया है। उसी प्रशस्ति के ३५ वें पद्म में मतिसागर की प्रशंसा के बाद ३६-३७ पद्य में हेमसेन मुनि की प्रशंसा की गई है, पर दोनों श्राचार्यो का कोई सम्बन्ध नहीं बतलाया गया। हेमसेन तो निःसन्देह हुम्मच के उक्त दोनों लेखों के कनकसेन वादिरान ( हेमसेन ) ही हैं। पर मतिसागर भी थे, यह बात हमें उनकी षट्तर्कपरमुख प्रतिभा के न्यायशास्त्र के ग्रन्थ न्यायविनिश्चयविवरण की प्रशस्ति से लेखों से यह सिद्ध होता है कि मतिसागर और हेमसेन ( कनकसेन ) दो व्यक्ति थे । संभव है एक तो वादिराज के दीक्षागुरु और दूसरे विद्यागुरु रहे हों। हमारे इस श्राशय का समर्थन न्यायविनिश्चय विवरण की प्रशस्ति के दूसरे पद्य से भी होता है जहाँ श्लेषात्मक ढंग से बिनेन्द्र की स्तुति करते हुए वादिराज ने 'सन्मतिसागरकनकसेनाराध्यम्' लिखा है । वादिराज बड़े ही विद्वान्, लेखक एवं वादी आचार्य थे। इन्हें चालुक्य नरेश जयसिंह तृतीय जगदेकमल्ल ( सन् १०१६१०४४ ) ने जगदेकमल्लवादि नामक उपाधि दी थी ( २६० पद्य ४२, प्रथम भाग ५४ ) । लेख नं० २१५ में इन्हें अकलंक, धर्मकीर्ति और अक्षपाद के प्रतिनिधिरूप माना गया है ।
वादिराज के गुरु परिचायक उनके मालुम होती है ।
वादिराज के अन्य धर्माश्रों में पुष्पसेन और श्रीविजय पण्डित थे । पुष्पसेन हमें वे ही प्रतीत होते हैं जिनकी पादुकाओं की स्थापना का स्मारक लेख नं० १७७ (सन् १०३० के लगभग ) में है । इनके शिष्य का नाम गुणसेन था जिनके कई लेख मुल्लूर से प्राप्त हुए हैं। ये कोङ्गाल्व नरेश राजेन्द्र चोल के कुलगुरु थे ( १८८-१६२ ) । लेख नं० २०१ में इन्हें पोम्सलाचारि लिखा