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है कि उसमें एक निश्चन शैली का अनुसरण किया जाता है। प्रारम्भ में बहुधा मंगलाचरण होता है। वह छोटे वाक्य के रूप में सर्वशाय नमः,ॐ नमः सिद्ध न्या' श्रादि या पद्य के रूप में जिनशासन को नमस्कार या किसी देवता या अनेक देवताओं को नमस्कार श्रादि । इसके बाद प्रशस्ति प्रारम्भ होती है जिसमें राजा के नाम युद्ध में विजय श्रादि तथा वंशपरम्परा का वर्णन होता है। यह वर्णन कभी कभी ऐसे सांचे में ढले हुए के समान होता है कि एक राजा के शासनकाल के सभी लेखों में एकसा विवरण मिलता है । लेख का यही हिस्सा राजनीतिक इतिहास के विद्यार्थी के लिए बड़े महत्त्व का होता है । इस अंश के बाद राजा से भिन्न अगर कोई दाता है तो उसका, उसके वंश एवं वैभव आदि का वर्णन आता है। साथ में देय पात्र का वर्णन आता है। यदि वह मुनि व प्राचार्य हुआ तो उसकी गुरुपरम्परा संघ, कुल, गण, गच्छ, अन्वय आदि का वर्णन होता है । यदि वह मंदिर आदि धर्मस्थान हुआ तो उसका भी वर्णन होता है। इसके बाद देय वस्तु- धन, जमान, कर, शुल्क, तेल आदि जो होता है उसका भी खुलासा वर्णन मिलता है। जमीन के दान में उसको सभी परिधियों का वर्णन होता है। इसके बाद दान की रक्षा के लिए विशेष अनुरोध किया जाता है। इसमें दान को जो क्षति पहुचाते हैं उनकी भर्त्सना और जो रक्षा करते हैं उनके प्रशंसावाक्य दिये जाते हैं। अंत में लेख को उत्कीर्ण करने वाले का या निर्माता का नाम होता है।
जैन लेख संग्रहः जैन शिला लेखों की संख्या इतनी अधिक है कि उनका संग्रह एक जगह करना कठिन है । इधर माणिकचंद्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला से दिगम्बर सम्प्रदाय से सम्बंधित लेखों का संग्रह तीन भागो में निकला है। बाबू कामताप्रसाद ने एक छोटा प्रतिमालेख संग्रह निकाला है। वैसे ही श्वेताम्बर जैन शिलालेखों के संग्रह स्वर्गीय वाबू पूरणचंद्र नाहर ने जैन लेख संग्रह नाम से तीन भाग में, मुनि जयंतविजय जी ने श्रवुद प्राचीन लेख संग्रह पांच भाग में, विजयधर्म सरि के प्राचीन लेख संग्रह और जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह एवं मुनि कांतिसागर जी का जैन प्रतिमा लेख दो भाग तथा उपाध्याय विनयसागर जी का प्रतिष्ठा खेख संग्रह श्रादि प्रकाशित हो चुके हैं।