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अक्षरों की पूर्ति पादचस्या आवचरी' शब्द से की जाय तो यह कहा जा सकता है कि वह शिष्या या उसके गुरु, महावाचक समदि के बाहचरी या श्राइचर थे। श्राइचर शब्द का यदि यह अर्थ मान लिया जाय कि उक्त प्राचार्य की परम्परा में विश्वास करने वाला तो यह संभावना करनी पड़ेगी कि महावाचक समदि की परम्परा १८८ वर्ष या उसके कुछ अधिक वर्षों तक चलती रही। इसी हालत में लेख और पट्टावली के आर्य समदि और आर्य समुद्र का समीकरण संभव है।
इसी तरह गणि आर्य मंगुहस्ति का उल्लेख करने वाले लेख नं०५४ का समय कुषाण सं० ५२ दिया गया है जो कि वी० नि० सं० ६५७ होता है। इस लेख में जो समय दिया गया है वह है वाचक आर्य घस्तुहस्ति के शिष्य एवं गणी आर्य मंगुहस्ति के श्राद्धचर वाचक आर्य दिवित का। पट्टावली में आर्य मंगु का समय वी०नि० सं०४६७ दिया गया है। लेविगत समय वी०नि० सं० ६५७ (कुषाण सं० ५२) से संगति बैठाने के लिए यहाँ यह समझना चाहिए कि आर्य मंगु की परम्परा कम से कम १६० वर्ष तक चलती रही।
१. मथुरा के लेख नं. १७ में सहचरी, ४३ में सढचरिय, ५४ में षढचरो
तथा ५५ में श्रमचरों शब्द आते हैं। २. यह संभावना इसलिए करना पड़ी कि उस काल में एक समय में ही
श्राचार्यों की कई परम्परायें चलती थी। श्वेताम्बर जैन पट्टावलियों के देखने से यह बात भली भांति विदित होती है कि आर्य सुहस्ति के बाद ऐसी अनेक परम्पराओं का उद्गम हुआ था। कोई वाचक परम्परा थी, कोई युगप्रधान परम्परा थी तथा कोई गुरु परम्परा थी अादि. तथा उन श्राचार्यों से कई गण, कुल और शाखा निकले थे। जिन परम्पराओं की स्मृति रही उनका अंकन तो हो गया, शेर कालदोष से सुप्त हो गई।