________________
जैन-शिलालेख-संग्रह
दूरं माडि बळ्ळिकम् ।
धीररु मुनिमद्र-देवरगणित-महिमर || वृ ॥ क्षमे निश्शल्यमेनुत्ते सन्यसनदिन्दात्म-प्रबोधादयम् । समसन्दोन्दिरे दिव्य-पञ्च-पद-चिन्ता-पंक्ति मुन्नेयदुवुत्- । तम-ताणक्कदु सञ्चितात्यमेने धर्म-ध्यान-मौनोद्यम- । क्रमदिन्द मुनिभव-देवरोडलि बेर्माडिदजीवमम् ॥ लसित-शकाङ्कमुद्घ-नभ-चन्द्र-पुरेन्दुविनिन्दे सोभिसल् । पेसर्वडेदोप्पि तोर्प विलसद्-विभवाब्दद चैत्र सुद्ध-ते। रसे शनिवारदोळ सकळ-सन्यसन-व्यसनं समाधि सन्- । दिसे मुनिमद्-देवरुरे सद्-गति सौख्यमनेरिददर निबम् ॥ क । लसित-मुनिभद्र-देवर। निसिधियुमनवर शिष्यरेने सोगयिप पारि-। सरोन-देवरे मा-1 डिसि कीर्तियनान्तरिन्तु कन्तु-विद्रर् ।। भद्रमस्तु जिनशासनम् श्री
| वृषभ-तीर्थकरके गणधर वृषभसेन-मुनिप और उद्धर-वंशके आचार्योंकी कीर्तिका वर्णन कौन कर सकता है । इस वंशके आचार्योंके अग्रणी जिनसेन
और वीरसेन थे। उस परम्परामें लक्ष्मीसेन-भट्टारक अवतीर्ण हुए थे, जिनके शिष्य चन्द्रसेन-सूरि थे। उनके शिष्य मुनिभद्र-देव ये: उनकी प्रशंसाएँ । उन्होंने हिसुगल बसदिको बनवाया था, और मुलुगुण्ड जिनेन्द्र मन्दिरका विस्तार किया था। जिस समय हरिहर-राय विजयनगरी में विराजमान थे, सेन-गणके युद्धजनोंने उस यतिके गुणोंको नमस्कार किया था। तपश्चरणके बाद उन्होंने बहुत समयतक निश्चिन्त जीवन बिताया। अन्तमें, उन्होंने अपना अन्त नवदीक बानकर, विहित विधिका अनुष्ठान करके उच्चावस्थाके लिये अपनेको तैय्यार किया, तथा