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जैन - शिलालेख - संग्रह
आ-तारापति- भानु-भूघरर-धरा ताराम्बरं तिष्ट (ष्ठ ) तु
श्री गोपीश-परोक्ष-शासनमिटं सत्कर्म्मणा स्थापितम् ॥
[ वादिराज मुनिकी प्रशंसा । उनके शिष्य जयकीर्त्ति मुनिप थे; उनके शिष्य सिद्धान्त- व्रतिप थे । उनके शिष्य बुल्ल-गौड, उनके पुत्र गोपीनाथ, और उसकी माँ मल्लि गाण्डि । इन सबकी क्रमसे प्रशंसा । उनके शिष्य ( प्रशंसा सहित ) सिद्धान्त - देव-मुनिष थे, जिनका मस्तक बौद्धों को चुप करनेके लिये हमेशा सन्नद्ध रहता था । सांख्य, योग, चार्वाक, बौद्ध, भाट्ट तथा प्राभाकर सभीको उन्होंने शास्त्रार्थमें जीता था । बुल्लप- गौड, तथा उनके पुत्र गोपण-प्रभु जो अपनी म मलि-गौडिके हाथमें मक्खीकी तरह था, की प्रशंसा ।
राय - राजगुरु - मण्डलाचार्य, महा-बाद-वादीश्वर, रायवादि पित. मह अभयचन्द्र- सिद्धान्त-देवका पुराना (ज्येष्ठ) शिष्य बुल-गौड था, जिसका पुत्र गोपगौड नागरखण्डका शासक था । नागरखण्ड कर्णाटक देशमें था । नागरखण्डका खास भूषण भारति था, जिसमे जैन लोग, विद्वान्, न्यायी एवं श्रीमन्त लोग भरे हुए थे। इसमें एक उत्तम चैत्यालय था, जिसमें पार्श्व जिनेश विराजमान थे, उस नगर ( भारङ्गि ) का शासक गोप-गौडके पुत्र बुल्लप्पका पुत्र गोपण था, जिसके दो गुरु थे, पण्डिताचार्य और श्रुत- मुनिप; इनमे से एक उनको अनीतिके मार्गसे हटाता था तो दूसरा अच्छे मार्गपर लगाता था । इस संसारकी अच्छीअच्छी वस्तुओंका उपभोग कर, परलोक के फलोंकी इच्छा से, ( उक्त मितिको ), गोपणने समाधिकी रस्म से शरीर त्याग किया, और 'मुक्ति' प्राप्त की । भद्रमस्तु | यह समय उसी शक कालका था, जिसमें यह पाषाण लगाया गया था ।
[ EC, VII, Sorab tl., No. 329.]