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जैन-शिलालेख-संग्रह
१०३. पद्माराधकरूं मजिदेवरायरू नागरखण्डेय... ... ... ..
रिगे-नाडुम... ... १०४. ... ... ... ... .""कोटरु ॥
[ इस प्रकाशित अमिलेखकी कहानीका संक्षेप इस प्रकार है:
कुन्तल देशके आलन्दे ( या आलन्द ) नामक नगरका निवासी श्रीवत्स गोत्रका पुरुषोत्तमभट्ट नामका एक शैव ब्राह्मण था। उसके राम नामका एक पुत्र उत्पन्न हुआ। कालान्तरमें, शिव की अधिक भक्ति करनेके कारण, इसका नाम 'एकान्तद-रामय्य' पड़ गया। उसने बहुत-से शैव तीर्थ स्थानोंकी यात्रा की।
और अन्तमें वह हुळिगेरे ( लक्ष्मेश्वर ) आया बाँकि दक्षिणका सोमनाथ' इस नामसे प्रसिद्ध एक शैव मन्दिर था, इसके बाद अन्लूर वहाँ कि, जैनधर्मके एक मज़बूत गढ़ होनेके सिवाय, ब्रह्मेश्वरके मन्दिरमें एक महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली शैव केन्द्र भी था। अब्लूरमें वह जैनोंके साथ विवादमें फँस गया । जैनोंने वहाँ शङ्कगौण्ड नामके ग्रामणीके अधिनायकत्वमें उसकी भक्तिका अन्त कर दिया। कुछ शर्त रक्खी गई और यह एक ताड़-पत्र पर लिख दी गई। शर्त यह थी कि हारनेपर जैन लोग अपने जिन देवकी जगह शिवकी प्रतिमा स्थापित कर देंगे। एकान्तद-रामय्य शर्तमें विजयी हुआ। इस पर जैनोंने उपर्युक्त शर्तनामेकी शर्तोंका पालन करनेसे इन्कार कर दिया। तब जैनोंके रक्षक, घुड़सवार, सरदार, तथा उनके सैनिकोंके विरोधमें होते हुए भी, उस अकेलेने जिनको उठाकर (फेंककर ) वेदीको ध्वस्त कर दिया, और, जैसाकि आगेके लेखसे प्रकट होता है, उसकी जगह पर पर्वत सरीखा एक 'वीर-सोमनाथ' नामसे शिवालय खड़ा कर दिया। इसपर जैन लोग बिजलके पास गये और उससे एकान्तदरामय्यकी शिकायत की। राजाने एकान्तद-रामय्यको बुलवाया और उससे प्रश्न किया कि उसने जैनौका यह भयंकर नुकसान क्यों किया। इसपर एकान्तदरामम्यने वही ताइ-पत्र वाला शतनामा पेश कर दिया, और बिजलसे उसे अपने खजानेमें जमा कर देनेको कहा तथा यह बात भी कही कि अगर जैन लोम अपने