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जैन - शिलालेख संग्रह
अगणित-महिमेयोलोन्दिद | सु-ग [ ति ] यनान्तविनेय-वन-नुत-चरितर् ॥
श्रीमत्परमर्गमीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं विनशासनम् || श्रुत-मुनि-वर्य्याद् भयात् पूज्य श्री देवचन्द्र-परम-गुरुः । सत्-तपो-निळयः ॥
तच्छिष्य आदिदेव
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शुभमस्तु ॥
[ ( उक्त मितिको ) प्रसिद्ध श्रुतमुनिके चरणोंका उपासक देवचन्द्रमुनिपने स्वर्गलाभ किया । श्रुतमुनिके शिष्य संसार- विख्यात, देशी-गणके देवचन्द्र- प्रतिप यतियों के कुलमें तिलक-समान थे, वे आदिदेवके गुरू थे। उनकी और भी प्रशंसा, जिसमें कहा गया है कि उन्होंने एक ध्वस्त जिनमन्दिरका पुनरुद्धार करवाया था । श्रुतमुनि से सन्मानित देवचन्द्र थे जिनके शिष्य आदिदेव थे । ]
[ Ec, VIII, Sorab tl., No 260 ]
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हिरे आवलि - कमद
[ वर्ष प्लवंग - १३६० ई० ( लू० राइस ) 1 ]
[ हिरे व्यवखिमें, ध्वस्त जैन वस्ति के सामने हवे पाषाण पर ]
स्वस्ति श्रीमतु प्लवंग-संबध्छुरद अस्वैम- बहुळ- ञ्चमी - शुक्रवारदन्दु श्री
मूल संघद वारिसेन- देवर गुड्ड मसण-गौडन मग गोरव गौड पञ्चनमस्कार -समाधि-विधियिं स्वस्तनाद ||
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[ लेख स्पष्ट है । १३६७ ई०; राजा के नामका उल्लेख नहीं है । ]
[Ec, VIII, Sorab tl., No 109]