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२३.
जैन-शिलालेख संग्रह
बीणोंडारके देवरष्टविधाचने... ... ... ... ... ... ... .."ब्राह्मण... ... ... ... ... ... ... .. कोन्द पापक्के... ... ... ... ...( हमेशा की तरह अन्तिम श्लोक ) स्वस्ति श्री समस्त-कोटि-जिनालयं भद्रमस्तु जिनशासनाय॥
[बिन शासनकी प्रशंसा। विस समय, ( अपने पदों सहित ), होयसळ वीर-बल्लाल-देव हेदुरे (कृष्णा नदी ) तक उत्तरकी ओर पृथ्वीको स्वाधीन करके सुख और शान्तिसे राज्य करते हुए अपने निवासस्थान दोरसमुद्रमें थे:-तत्पादपद्मोपजीवी होरलाधिकुलाग्रणी एक गोरव-गखुण्ड थे। उन्होंने तिप्पूरमें एक जिनालय बनवाया । वह मन्दिर द्रमिलसंघ, नन्दिसंघके आरुङ्गल अन्वयका था। जिनालयकी मरम्मत तथा पूजाके प्रबन्धके लिये उसने मदहल्लि गाँव का, बसदिके उत्तरकी औरकी जमीन सहित, दान किया था।] [EC, IV, Guudlupet, tl., No. 27.]
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हलेबोड-कचड़। वर्ष नल [ शक १११८= ११९६ ( कीलहान )] [पार्श्वनाथ पस्तिके प्रवेशद्वारके पासके एक पाषाणपर] श्रीमत्परमगंभीरस्पादादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथप शासनं जिनशासनम् ॥ श्रो-मूलसंघ क्रमलाकर-राजहंसो देशीय-सद्-गणि..."रावतंसः । बीवाजिनेन्द्रसमयार्णव-तूर्ण-चन्द्रः
श्री-वक्र-गच्छ-तिलको नि-बालचन्द्रः॥ स्वस्ति' भीमद्-मुबबळ-चक्रवर्ति यादव-नारायण-वीर-बलाल-देवर् सुख-संकथाविनोददि राज्यं गेय्युत्तमिरे। नळसंवत्सरद कार्तिक-शुद्ध-पडिव-बृहस्पतिवा