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जैन शिलालेख संग्रह
(सूनुना । संधिविग्रहसंस्थेन लिखिता वासवेन वै ॥ २६ ॥ यावद्रावणरामयोः सुचरितं भूमौ जनैम्गीयते [ । ] यावद्विष्णुपदीजलं प्रवहति व्योम्यस्ति यावच्छृशी । -
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२६ – द्वक्त्रविनिर्गतं श्रवणकैः याव [ च्छ्र]तं श्रूयते तावत्कीर्तिरियं चिराय जयतात्संस्तूयमाना जनैः ॥ ३० ॥ उत्कीर्णा विज्ञानिकसूमाकेन ॥ ० ॥ मंगलं महाश्रीः ॥ ● ॥
शिलालेखका परिचय '
[ डूंगरपुरके अन्तर्गत अथूणा ( उच्छूक ) नामका एक स्थान है, जो एक समय विशाल नगर था; और परमारवंशी राजाओंकी राजधानी रह चुका है । एक समय यह स्थान एक छोटे से गाँवके रूपमें आबाद है और इसके पास ही सैकड़ों मन्दिरों तथा मकानो आदिके खण्डहर भग्नावशेपके रूपमें पाये जाते हैं । यह शिलालेख यहींसे मिला है जो आजकल अजमेरके म्यूजि यम मौजूद है ।
उक्त शिलालेख वैशाख सुदि ३ विक्रम सं० १९६६ का लिखा हुआ है और उस वक्त लिखा गया है जबकि परमारवंशी मंडलीक ( मदनदेव ) नामके राजाका पौत्र और चामुण्डराजका पुत्र 'विजयराज ' स्थलि देशमें राज्य करता था। उच्छूणक नगर में, उस समय 'भूषण' नामके एक नागरवंशी जैनने श्री वृषभदेवका मनोहर जितभवन बनवाकर उसमें वृत्रभनाथ भगवान्की प्रतिमाको स्थापित किया था, उसीके सम्बन्धका यह शिलालेख है। इसमें भूषणके कुटुम्बका परिचय देनेके सिवाय, माथुरान्वयी श्री छत्रसेन नामके एक आचार्य
१. पं० जुगल किशोर मुख्तार; अर्थुजाका शिलालेख, जैनहितैषी, भाग १३, अंक ८, पृ० ३३२ से उद्धृत ।