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जैन - शिलालेख संग्रह
धन, विहितविरोधिबंधन, शनिवारसिद्धि, धम्मैकबुद्धि, महालक्ष्मीदेवी - लब्धवरप्रसाद, तथा सहबकस्तूरिकामोद ।'
पंक्ति १५ - २६ में विजयादित्यने, अपने बळवाडके निवासस्थान पर आरामसे राज्य करते हुए, सोमवार के दिन चन्द्रग्रहण के अवसरपर दुन्दुमिवर्षकी माप महीने की पूर्णिमा तिथि सोमवारको भूमिदान किया । यह दुन्दुभिवर्ष शक वर्ष १०६५ के बीत जाने पर ही लगा था। जमीन कुण्डी नामक देशी माप से चौथाई निषर्तन थी । उसी सालमें १२ हाथका एक मकान भी अर्पण किया था । मीन और मकान दोनों बाजिरगखोल नामके जिलेके हानि हेरिलगे गाँव थे । यह एक मन्दिरको दान किया गया था जिसे माघनन्दि सिद्धान्तदेवके शिष्य तथा कामदेव - सामन्तके अधीनस्थ वासुदेवने बनवाया था । यह दान मन्दिर के जीर्णोद्धार तथा वहीं रहनेवाले मुनियोंके लिये आहारदानके प्रबन्धके लिये था । मात्रनन्दि सिद्धान्तदेव क्षुल्लकपुर ( कोल्हापुर ही का दूसरा नाम ) के रूपनारायण जैनमन्दिर के पुजारी ( या पुरोहित ) थे, मूलसंघ, देशीयगणके पुस्तकगच्छ के प्रधान थे । उनके एक दूसरे शिष्य माणिक्यनन्दि पण्डितदेव थे । इस दानके करते समय इन्हीं पण्डितदेवके पादका 'प्रक्षालन किया गया था । इस दानको सब करों और बाधाओंसे सदैवके लिये मुक्त किया गया था । २७-२८ की पंक्तियों में भविष्य में होनेवाले राजाओंसे प्रार्थना की गयी है कि वे इस दानकी हमेशा रक्षा या सन्मान करते रहें, क्योंकि यह उन्हीं एक का किया है। और यह शिलालेख अन्तमें पुरानी कर्णाटकलिपिमें वह कहते हुए समाप्त होता है। :
शान्तरस प्रधान चिन देव ही मेरे देव हैं, अश्रान्त गुणवाला तपोनिधि, योगी मानन्दिवैद्धान्तिक ही मेरे गुरू हैं और कामदेव सामन्त ही मेरे राजा या मालिक हैं।' ]
[ EI, IV. No. 27, T and A. ]