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दक्षिण कर्नाटक की ओर विहार किया और ७०० शिष्यों के साथ इस
पहाड़ी पर श्राये । उन्होंने यहाँ अपने समाधिमरण की श्राराधना के लिए केवल एक शिष्य को साथ रख शेष को विसर्जित कर दिया इत्यादि ( पृष्ठ २८४-२६२ ) ।
श्रागे मुनिश्री लिखते हैं कि श्रार्य वज्रस्वामी ने वि० सं० १७४ में अपने शिष्य संघ के साथ बारह वर्ष के दुष्काल में दक्षिण जाकर एक पहाड़ी के ऊपर अनशन किया और समाधि पूर्वक स्वर्गगमन किया । इस भूमि की इन्द्र ने रथ के द्वारा तीन प्रदक्षिणा की इससे इस पहाड़ का नाम 'रथावर्तगिरि' पड़ा |
इस रथावर्तगिरि का असली नाम क्या था और वर्तमान में उसका नाम क्या है, इस बात का कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता । किन्तु हमें लगता है कि श्राज जो इन्द्रगिरि ( विन्ध्यमिरि ) के रूप में पहाड़ी बोली जाती है वही वास्तव में स्थावर्त गिरि है, और उसके ऊपर जो विशालकाय मूर्ति है वह श्रार्य द्वितीय भद्रबाहु स्वामी याने वज्रस्वामी की मूर्ति है ।
० वज्रस्वामी ने अनशन के लिए प्रथम एक पहाड़ी पसन्द किया या अपने एक बालमुनि को भी छोड़ने के लिए उन मुनि को वहीं रख उस पहाड़ी का त्याग कर सामने की दूसरी पहाड़ी पर अनशन किया और बालमुनि ने पहली पहाड़ी पर अनशन किया ।
इसके पश्चात् उनके प्रशिष्य श्राचार्य चन्द्रसूरि यहाँ पधारे थे और उनके उपदेश से उसी पहाड़ी की विशाल शिला पर श्रा० वज्रस्वामी की विशाल काय प्रतिमा बनी । ये दोनों पहाड़ियाँ श्राज इन्द्रगिरि और चन्द्रगिरि नाम से प्रसिद्ध है, इत्यादि ।
( देखो, जैन परम्परानो इतिहास, मा० प्रकाशक - श्री चारित्र स्मारक ग्रन्थ माला, ३३७-३३६)
१, लेखक त्रिपुटी महाराज, अहमदाबाद, १६५२, पृष्ठ