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बेलूरके लेख
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विष्णु - दण्डाaिrat भूत-कुल-परम्परा इस प्रकार थी:- सबसे पूर्व में (आदि ब्रह्मा युगमें ) काश्यप प्रजापति थे, जिनसे बहुत-से महान् पुरुष उत्पन्न हुए; उनके बाद एक उदयादित्य हुए, जिनकी पत्नीका नाम शान्तियके था । उनका पुत्र विष्ण-राज- दण्डाधीश था । उसकी पत्नी चन्दले थी, उनका पुत्र उदयण था । उदयणका छोटा भाई विष्णु हुआ, जो नये चन्द्रमाकी तरह श्राकार और यशमें बढ़ता ही गया ।
इसके किशोरावस्था प्राप्त होने पर स्वयं काञ्चिगोण्ड विक्रमगंग विष्णुवर्द्धन देवने, उसको अपने पुत्रके समान मानकर, बड़े उत्सवसे स्वयं ही उसका उपनयन संस्कार किया । सात या आठ वर्षकी उमरके बाद जब वह समस्त शास्त्र - विज्ञान में पारंगत हो गया तब उसको अपने प्रधान मन्त्रीकी पुत्री ब्याह दी । और १० या ११ वर्षकी उम्र में बुद्धिमें कुशाग्रकी तरह तीक्ष्ण होने और चार उपाधियों ( राजभक्ति, निस्पृहता, संयम और धैर्य ) में पूर्ण होने पर विष्णुवर्द्धनदेवने दुगुने विश्वासके साथ उसे 'महा-प्रचण्ड - दण्डनाथ' का पद दिया । और उसे सर्वाधिकार दे देनेसे वह सर्वाधिकारी तथा समस्त जनोंका उपकार करने की सामर्थ्य वाला हो गया ।
पूर्ण यौवन प्राप्त होने पर समस्त सार्वजनिक कामोंके करनेसे अनुभवकी वृद्धि होनेपर महापवित्र स्थानोंमें दान देनेके बाद, उसने यादव राज्यकी राजधानी दोरसमुद्र में यह विष्णुवर्द्धन जिनालय बनवाया ।
इस महापुरुषके गुरुकी गुरु-परम्परा इस प्रकार थीः – वर्द्धमान स्वामीके बाद केवली और श्रुतिकेवलियोंके हो जानेके बाद, जिन शासन के प्रभावको सहस्रगुणा बढ़ानेवाले समन्तभद्र स्वामी हुए । उनके बाद, उसी द्रमिल-संघ के अग्रणी पात्रकेसरी-स्वामी हुए । तत्पश्चात् क्रमसे वक्रग्रीव-वज्रनन्दी गणाग्रणी, सुमतिभट्टारक, जिनसमयदीपक अकलङ्क - चन्द्रकीर्त्ति भहारक - कर्मप्रकृति-पल्लवाधिपगुरु विमलचन्द्राचार्य- परिवादिमल्लदेव, कनकसेन - वादिराजदेव — श्रीविजयभट्टारक ( बूयुगपेमडिके गुरु - जयसिंहदेवके गुरु वादिराजेन्द्र - जो दर्शन शास्त्रके प्रकाण्ड विद्वान् थे )--- यादवान्वय-चूड़ामणि एरेयङ- देवके गुरु अजितसेन -स्वामी ( उनकी