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गेर सोप्पे :- १५-१६ वीं शताब्दी के जैन केन्द्रों में गेरसोप्पे का नाम प्रमुख था। अब तक यहाँ की स्थिति को प्रकट करने वाले अनेकों लेख प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत संग्रह के कतिपय लेखों से उसकी महत्ता पहचानी जा सकती है । गरसोप्पे के राजवंश का वैवाहिक सम्बन्ध संगीतपुर और कारकल के राजाओं से था । गरसोप्पे का नाम बढ़ाने का श्रेय वहाँ के राजाओं और जैन नागरिकों को विशेष था । ले० नं० ६७४ में इस नगर का सुन्दर वर्णन है जिससे मालुम होता है कि यहाँ अनेक भव्य जिनालय थे, योगियों के निवास तथा विद्वानों की मण्डली थी। इस लेख से विदित होता है कि सन् १५६० में यहाँ अनन्तनाथ और नेमीश्वर नामक दो विशाल चैत्यालय थे । उक्त लेख में यहाँ के वणिक् वर्ग के धार्मिक कार्यों का उल्लेख है । यहाँ के उदारचेता कतिपय सेट्टियों के दान कार्य का उल्लेख हमें श्रवणवेल्गोल से प्राप्त कुछ लेखों में भी मिलता है । ले० नं० ६६६' से विदित होता है कि सन् १४१२ में गेरसोप्पे के गुम्मटण्ण सेट्टि ने यहाँ श्राकर पाँच बसदियों का जीर्णोद्धार कराया था ।
इसी तरह ले०
नं० ६७१२ से ज्ञात होता है कि सन् १४१६ के लगभग गेरसोप्पे की श्रीमती अब्बे और समस्त गोष्ठी ने चार गद्याण का दान दिया था। लै० नं० ६७० ( सन् १५३६ ) में चार बातों का उल्लेख है जिनमें गेरसोप्पे के सेट्टियों से लेन देन सम्बन्धी कुछ आपसी समझौतों के उपलक्ष्य में आहार के लिए दान देने की प्रतिज्ञाएँ करायी गई हैं।
मैसूर राज्य से पन्द्रहवीं शताब्दी के अनेक जैन लेखों से ज्ञात होता है कि यहाँ और भी अनेक जैन केन्द्र थे जैसे सरगुरु (६१८) मोरसुनार (६२१), निडगल्लु पर्वत (४७८, ६३७) यिडुवणि (६४९ ) वोगेयकेरे (६५५ ) आदि ।
१. प्रथम भाग, १३१
२. प्रथम भाग, १३५.
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