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यह एक जैन मन्दिर बनाकर यापनीय, निर्मन्थ और कूर्चकों को दान में दिया या । इसी तरह ले० नं० १०० उल्लेख करता है कि श्रष्टाह्निका पर्व मनाने के लिए कदम्ब नरेश रविवर्मा और अन्य लोगों ने पुरुखेटक गांव यापनीय संघ को दिया था । ले० नं० १०१-१०२ के अनुसार यहाँ कदम्ब रविवर्मा और उसके छोटे माई भानुवर्मा द्वारा जिन भगवान् की पूजा के लिए दान दिये गये थे । ले० नं० १०३ से विदित होता है कि कदम्ब नरेश हरिवर्मा ने पलासिका में सिंह सेनापति के पुत्र मृगेश द्वारा निर्मापित जैन मन्दिर में अष्टान्हिका पूजा के लिए और सर्व संघ के भोजन के लिए कूर्चकों के वारिषेणाचार्य संघ के लिए चन्द्रक्षान्त को प्रमुख बनाकर दान दिया था। इसी तरह ले० नं० १०४ के अनुसार अहिरिष्ट नामक श्रमण संघ के लिए सेन्द्रक राजा भानुवर्मा की प्रार्थना पर हरिवर्मा ने दान दिया था । इस तरह कदम्ब राजानों की ४-५ पीढ़ी तथा पलासिका यापनी, निथ और कूर्चक सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र रहा है।
पुलिगेरे ( लक्ष्मेश्वर ):: - इस स्थान के सातवीं से दशवीं शताब्दि ईस्वी के संग्रहीत पाँच लेखों से मालुम होता है यह एक जैन तीर्थ था । यहाँ शंखवसदि नामक विशाल जैन मन्दिर था जिसकी छत ३६ खम्भों पर थमी थी । इस बसदि के नाम से इस स्थान का नाम शंखतीर्थ पड़ा था । ले० नं० १०६ से विदित होता है कि सेन्द्रक राजा दुर्गशक्ति ने शंखजिनेन्द्र की नित्य पूजा के लिये कुछ भूमि दान में दी थी। ले० नं० १११ के अनुसार चालुक्य विनयादित्य सत्याभय ने इस मन्दिर को अपने राज्य के ५ वें या ७ वें वर्ष में माघ पूर्णिमा के दिन दान दिया था । ले० नं० ११३ में उल्लेख है कि चालुक्य वंशी विजयादित्य सत्याश्रय ने अपने राज्य के ३४ वें वर्ष में इस मन्दिर के लिए दान दिया था और ले० नं० ११४ से ज्ञात होता है कि सन् ७३४ ई० में विक्रमादित्य ने शंखतीर्थ वसदि का जीर्णोद्धार कराया था। यहां शंख बसदि के अतिरिक्त एक और जिनालय था, जिसका नाम धवल जिनालय था । ले० नं० १४६ इस तीर्थ के इतिहास की दृष्टि से बड़े महत्त्व का है। उक्त लेख के अनुसार सन्
६८ में इस तीर्थ का विशाल रूप हो गया था। यहाँ गंगराजा मारसिंह गङ्ग