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हुम्मच:-शान्तर कुल के संस्थापक जिनदचराय के समय (8 वीं शता.) से यह बराबर महत्व पूर्ण जैन तीर्थ रहा है। इस संग्रह के लगभग २२ लेखों से यह बात भली भाँति सिद्ध होती है। यहां की प्राचीन बसदि का नाम पालियक्क बसदि था जो कि सन् ८७८ के लगभग निर्मापित हुई थी। ले.नं. १४५ से से ज्ञात होता है कि तोलापुरुष शान्तर की पत्नी पालियक्क ने अपनी माता की मृत्यु पर उसे पाषाण बसदि के रूप में खड़ा किया था और इसके लिए बहुत से दान दिऐ थे । सन् ८६७ के ले० नं० १३२ में उल्लेख है कि तोलापुरुष विक्र मादित्य ने मौनिसिद्धान्त भट्टारक के लिए एक पाषाण बसदि बनवायी। सन् १०६२ के दो ले० नं० १६७ और १६८ क्रमशः सूले बसदि और पार्श्वनाथ बसदि से प्राप्त हुए हैं। प्रथम लेख में पट्टणस्वामि नोक्कय्य सेटि के दानों का उल्लेख है और दूसरे में वीर शान्तर की पत्नी चागलदेवी के दान कार्यों की प्रशंसा है । सन् १०६५ के एक लेख (२०३ ) में उल्लेख है कि त्रैलोक्यमान शान्तर ने अपने गुरु कनकनन्दि देव को यहां दान दिया था । सन् १०७७ के ५ लेख उसी तीर्थ से प्राप्त हुए हैं जिनमें से ले. नं० २१२ में तैलह शान्तर के दानों और पट्टणस्वामि नोक्कय्य सेट्टि की प्रशंसा है। ले० नं० २१३ बहुत ही विशाल लेख है जो कि पञ्चकूट बसदि के प्राङ्गण में एक बड़े पाषाण पर उत्कीर्ण है । पञ्चकूट बसदि प्रसिद्ध उर्वीतिलक जिनालय का ही नाम है। इस लेख के अनुसार चट्टलदेवी ने अपने पति एवं पुत्रादि की याद में तालाब कुत्रां, बसदि, मन्दिर, नाली, पवित्र स्नानागार, सत्र, कुंज श्रादि प्रसिद्ध धर्म एवं पुण्य के कार्यों को सम्पन्न कराया था। चट्टलदेवी शान्तरकुल और गंगवंश से सम्बन्धित कांची की रानी थी। लेख में शान्तर वंश और गंग वंश की वंशावली तथा द्रविड़ संघ, अरुजलान्वय नन्दिगण की पट्टावली भी दी हुई है। इस लेख के अनुसार पंचकूट जिनालय का स्थापना काल शक सं० १६६ था। ले० नं. २१४ में पंचकूटवसदि के निर्माण कार्य का विशेष इतिहास दिया गया है और मन्दिर के प्रतिष्ठाचार्य श्रेयांस देव की (ले. नं. २१३ के समान ही ) परम्परा दी गई है। ले० नं० २१५ में ननि शान्तर, राजा श्रोदुग और चट्टलदेवी आदि