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कन्दर्प ने एक जिनालय बनवाया जो कि शंख असदि तीर्थ बसदि मण्डल के लिए मण्डन स्वरूप था । उसका नाम उक्तः राजा के नाम पर गङ्गकन्दर्प भूपाल जिनेन्द्र मन्दिर रखा गया और उसके लिए दान देते समय सीमा के रूप में अनेक जैन एवं श्रजैन बसदियों का उल्लेख है ।
कोपण: - यह स्थान श्रवण वेल्गोल के बाद बड़े महत्त्व का जैन तीर्थ रहा है। शिलालेखों के पर्यवेक्षण से प्रतीत होता है कि यह ७ वीं से लेकर १६ वीं शताब्दी तक जैनों का महातीर्थ रहा है । प्रस्तुत संग्रह में कोपण के सम्बन्ध के ११ वीं शताब्दी के पहले के लेख संग्रहीत नहीं पर उसके बाद के जो भी लेख है उनमें उसकी प्रसिद्धि का ही उल्लेख है । ले० नं० १६८ से विदित होता है कि सन् १००० के लगभग कोपण तीर्थ के कुछ यात्री श्रवण वेल्गोल आये थे । ले० नं० २६६ में लिखा है कि जैनों के प्रमुख तीर्थं कोण था । ले० नं० २५५ में उल्लेख है कि जैन ने अपनी नवधिक दानशीलता से गङ्गवाडि ६६००० को चमका दिया था। यही बात ले० नं० ३०१ और ४११ से पुष्ट होती है । ले० नं० ३०४ के अनुसार गंगराज के ज्येष्ठ भ्राता बम्मदेव के पुत्र ऐच दण्डनायक ने कोपण वेल्गोल आदि स्थानों में अनेक जिन मन्दिर निर्माण कराये
सहस्रों तीथों में सेनापति गंगराज
कोपण के समान
थे । उसी लेख में कोपण को 'कोपरा आदि तीर्थदलु' अर्थात् एक प्रमुख या
।
आदि तीर्थ के रूप में माना गया है । सन् १९५६ ( ३५४ ) में सेनापति हुल्ल ने कोपण महातीर्थ में २४ जैन साधुनों के संघ के लिए अक्षयदान दिया था । ले० नं० ४५१ में उल्लेख है कि ऐचरण ने वेलगवत्तिनाडू में एक ऐसा जिनालय बनवाया था जैसा उस प्रदेश में और कहीं नहीं था और इस तरह उसने बेलवत्तिनाड को कोपण के समान बना दिया ।
१६ वीं शताब्दी में भी कोपण का महत्व कुछ कम न हुआ था । इस शताब्दी के महान् विद्वान् वादि विद्यानन्द के विषय में ले० नं० ६६७ में उल्लेख है कि इन्होंने कोप तथा अन्य दूसरे तीर्थों में महोत्सव करके विद्यानन्द नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की ।