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१४६ अन्त में महामहत्तु की स्वीकृति के बाद वर्धतां जिनशासनम् लिखा है।
९. जैनधर्म पर संकट १२ वीं शताब्दी के बाद दक्षिण भारत में जैन धर्म के पतन के एवं विखलित होने के चार प्रधान कारण थे।
प्रथम तो वह राज्याश्रय से वंचित हो गया था, गंग, राष्ट्रकूट, होय्सल जैसे साम्राज्य नष्ट हो चुके थे।
द्वितीय, पश्चात्कालीन जैन नेता गण ब्राह्मण धर्म के नवोदित रूप वैष्णव और वीर शैव सम्प्रदाय से जैन धर्म की रक्षा करने में उदासीन हो रहे थे। जैनाचार्यों में ऐसे कोई प्रभावक श्राचार्य न थे जो कि धार्मिक क्षेत्र में प्रतिद्वन्द्वियों को परास्त करते। ___ तृतीय, जैन मन्दिरों को श्राश्रय देने वाले व्यापारी संघ, वीर वणिज आदि वीर शैव धर्म के प्रभाव में आकर जैन धर्म को छोड़ चुके थे। शेष सामान्य जन वर्ग में ऐसी शक्ति न थी कि वे संगठित हो विधर्मियों का प्रतिरोध कर सकते।
चतुर्थ, वीर शैव धर्म के प्राचार्यों ने जैन धर्म के केन्द्रों पर हमला करना प्रारम्भ किया और स्थानीय सामन्तों को अपने धर्म में परिवर्तित कर उनसे ही जैनों का तिरस्कार कराया।
उपयुक्त बातें जैन लेखों पर दृष्टिपात करने से भलीभांति सिद्ध होती हैं। इस संग्रह के लेख नं० ४३५ और ४३६ से वीर शैव धर्म के एक प्राचार्य एकान्तद रामय्य के सम्बन्ध में ज्ञात होता है कि उसने कलचूरि नरेश बिज्जल को अपने प्रभाव में लाकर जैनों पर भयंकर उत्पात किए थे। उसने अन्लूर में जैनमूर्ति को फेंककर वेदी को ध्वस्त कर दिया और शिवलिंग की स्थापना की । इस पर जैनों ने कलचूरि नरेश विजल से शिकायत की पर वह तो उक्त आचार्य के प्रभाव में था। इसने उनका उपहास किया और एकान्तद रामय्य को प्रोत्साहन देते हुए जय पत्र प्रदान किया (४३५)। उसी लेख से ज्ञात होता है कि चालुक्य वंश का अन्तिम नरेश सोमेश्वर चतुर्थ भी उस मत का अनुयायी हो गया था।