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मैं था औदार्य सजन वर्ग के लिए तथा दनि सन्मुनीन्द्रों के लिए बा । भवन
गोल से प्राप्त लें. नं. ३५४. और ३५५ से विदित होता है कि उसने वरवेल्गोल में ८० नई बसदियां बनवायीं और गंगवाडि की २०० पुरानी बसदियों का जीर्णोद्धार कराया था। इन दोनों भाइयों के गुरु थे देशीगण, पुस्तक गच्छं के प्राचार्य माघनन्दि के शिष्य गण्डविमुक्त प्रती। ले० नं. ४११ से हात होता है कि ये दोनों भाई विष्णुवर्धन के बेटे नारसिंह के समय में भी विद्यमान थे। इन दोनों ने ५०० होन्नु देकर उक्त नरेश से सिन्दगेरी श्रादि तीन गांवों का प्रभुत्व प्राप्त किया था।
१०. ऐच:-गंगराज का भताजा एवं उसके बड़े भाई का पुत्र ऐच मी विष्णुवर्धन के सेनापतियों में था। उसकी शूरवीरता श्रादि के सम्बन्ध में विशेष तो नहीं मालुम पर ले० नं० ३०४ (प्रथम भाग १४४ ) में लिखा है कि उसने कोपण, बेल्गुल आदि स्थानों में अनेक जिन मन्दिर बनवाये और सन् ११३५ में संन्यासविधि से प्राणोत्सर्ग किया । गंगराज के पुत्र बोप्प ने अपने चचेरे भाई की स्मृति में निषद्या बनवाई थी। 1 ११. विष्णु दण्डाधिप-ले० नं० ३०५ से ज्ञात होता है कि विष्णुवर्धन होयसल का एक और सेनापति था जिसका नाम विष्णु दण्डाधिप या माडि दानायक बिटियण्ण था। इसने आधे महीने में ही दक्षिण प्रान्त की विजय कर ली थी। विष्णुवर्धन होय्सल का यह दाहिना हाथ था। यह बचपन से ही उक नरेश का प्यारा था। लेख में लिखा है कि किशोरावस्था प्राप्त होने पर नरेश ने इसका बड़े उत्सव के साथ स्वयं ही उपनयन संस्कार कराया, सात आठ वर्ष की आयु के बाद जब वह समस्त शास्त्र विज्ञान में पारंगत हुना तब उसको अपने प्रधान मंत्री की सर्व लक्षण सम्पन पुत्री न्याह दी और १०-११ वर्ष की उम्र में महापचण्ड दण्डनाय तथा सर्वाधिकारी का पद दिया।
१. प्रथम भाग, ३६५. २. वही, ११५,