________________
१२६
यह सेनापति बड़ा ही धर्मिष्ठ एवं दानी था । इसने कई सार्वजनिक कार्य कराये थे तथा राजधानी दोरसमुद्र में एक जिनालय बनवाया था । इसके गुरु श्रीपाल त्र विद्यदेव था जिन्हें उक्त जिनालय के प्रबन्ध और ऋषियों के श्राहार दान के हेतु उसने एक ग्राम और भूमियां दान में दी थीं ।
का नाम
१२. मादिराज - विष्णु वर्धन का एक जैन मंत्री महाप्रधान मादिराज था । ले० नं० ३१६ में उसके धार्मिक गुणोंकी बड़ी प्रशंसा की गई है। वह श्रीकरण का अधिपति था और अपनी वक्तृता से सभा भवन को प्रभावित किये था । वह कोष का लेखा रखता था । उसके भी गुरु श्रीपाल त्रै विद्यदेव थे । विष्णुवर्धन के उत्तराधिकारी नरसिंह के भी चार सेनापति जैन धर्मावलम्बी थे । वे थे देवराज, I हुल्ल, शान्तियण और ईश्वर चमूप ।
१३. देवराज - ले० नं० ३२४ में देवराज का उल्लेख है । इसका गोत्रकौशिक था । लेख में इसे 'श्रीजिनधर्मनिर्मलाम्बरहिमकर' एवं 'श्रीहोय्सल महीशराज्यभूभृन्निलय मणिप्रदीपकलश' कहा गया है। राजा नरसिंह ने उसकी धर्मबुद्धि और स्वामिभक्ति से प्रसन्न होकर उसे सूरनहल्लि गाँव दिया जहाँ उसने जिन चैत्यालय बनवाया जिसके लिए होय्सलदेव ने अष्टविधार्चन और श्राहार दान के निमित्त १० होन्नु दान में दिये और गाँव का नाम पार्श्वपुर रख दिया । उक्त ले० में उसके गुरु मुनिचन्द्र का नाम दिया है। उन गुरु की पट्टावली भी उक्त ले० में दी गई है।
ਚਰ
भाग की
१४. हुल्ल -नरसिंह होय्सल का द्वितीय सेनापति हुल्ल या हुल्लप था । युग में जैन धर्म के उद्धारकों में चामुण्डराय और गंगराज के बाद हुल्लप का ही नाम आता है। इसके सम्बन्ध में जैन शिलालेख संग्रह प्रथम भूमिका में पर्याप्त लिखा गया है। इस संग्रह में ये ले० नं० ३४८, ( २८ ) ३६२ (४०) ३६३ ( १३७ ) ३८१ ( ४६१ ) ३६६ (६०) इस सेनापति से सम्बन्धित है। कोटक में प्रथम भाम के लेखों की संख्या दी गई है। इस सेना
•