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इसी तरह चन्द्रायण देव की गृहस्थ शिष्या हरिहर देवी भी समाधिमरण से दिवंगत हुई थी । ११वीं शताब्दी के मध्य के नल्तूर से प्राप्त एक लेख (१८३) में after a नामक श्राविका भी संन्यसन विधि से स्वगंगत हुई थी।
१२वीं शताब्दी के उत्तरार्धं और १२वीं के पूर्वार्ध के ऐसे अनेकों लेख इस संग्रह में हैं जिनमें समाधिभावना से देहोत्सर्ग करनेवाली अनेकों महिलाओं का उल्लेख है । ले० नं० ४२३ में शान्तियक्क या शान्तले, ले० नं० ४३६ में मालब्बे तथा ले० नं० ४२७ में मक्कब्बे का नाम, यहाँ उदाहरण के रूप में समझना चाहिये ।
८. धार्मिक उदारता एवं स हष्णुता
इन लेखों में सहिष्णुता के अनेक उदाहरण मिलते हैं । जैनाचार्यों और जैन नेताओं, नरेशों, सामन्तों और सेठों में भारतीय संस्कृति के अनुरूप यह विशेष गुण था और इस भावना का उन्होंने निष्पक्षभाव से प्रदर्शन भी किया ।
इन लेखों से जैनाचार्यों की विद्वत्ता एवं इतिहासप्रियता के साथ साथ उनकी विस्तीर्ण हृदयता का परिचय मिलता है। उन्होंने शिलालेखों की रचना ही अपने स्थानों और धर्म और सम्प्रदाय के लेखों के उपयोग के लिए नहीं की प्रत्युत अन्य धर्म और सम्प्रदाय के उपयोग के लिए भी की । उदाहरण स्वरूप दिगम्बराचार्य रामकीर्ति ने चित्तौड़गढ़ से प्राप्त प्रशस्ति ( ३३२ ) वहाँ के तोकलजी के मन्दिर के लिए लिखी थी । बृहद्गच्छ के जयमंगल सूरि ने सुन्ध पहाड़ी से प्राप्त एक लेख ( ५०७ ) लिखा जो कि वहां चामुण्डा देवी के मन्दिर से प्राप्त हुआ है । इसी तरह यशोदेव दिगम्बर ने ग्वालियर के कच्छवाहों की प्रशस्ति तथा रत्नप्रभसूरि ने गुहिलोत वंश के घाघा एवं चिर्वा से प्राप्त लेख लिखे । पीछे के ये लेख इस संग्रह में नहीं है । यहाँ यह न समझना चाहिये कि वे लेख उन स्थानों में जैनों से छीन कर ले जाये गये हैं, प्रत्युत इसके विपरीत, वे लेख विशेषतः उन स्थानों के लिए हो जैनाचार्यों ने लिखे थे, क्योंकि उन लेखों के अन्त में जैनाचार्यों के नाम, गुरु परम्परा, गण, गच्छ के सिवाय हमें ऐसा कुछ नहीं मिलता जो जैनों से सम्बन्धित हो। यहां
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