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यदि मण्डलीक सानों को दण्डित किया था । लेख का उद्देश्य है कि उक्त नरेश के शासनकाल में सेन्द्रकवंशी सामन्त सामियार ने अलकक नगर में एक जैन मन्दिर बनवाया था और राजाज्ञा लेकर चन्द्र ग्रहण के समय कुछ जमीन और गाँव दान मे दिये । इस लेख के समय के सम्बन्ध में इतिहासज्ञ एकमत नहीं है । डा० रा० गो० भण्डारकर प्रभृति विद्वानों की धारणा है कि पुलकेशि प्रथम के सिंहासनारूढ होने का समय ई० सन् ५५० से पहले नहीं हो सकता, पर यह लेख उस नरेश के राज्यकाल को ६२ वर्ष पहले ले जाता है। जो हो, इस लेख में पुलकेशि प्रथम के वंश गोत्रादि के निर्देश के अतिरिक्त पितामह का नाम जयसिंह और पिता का नाम रणराग दिया गया है। ले० नं० १०६ से ज्ञात होता है कि रणराग के शासनकाल में उसके एक सेन्द्रक सामन्त दुर्गशक्ति ने पुलिगेरे के प्रसिद्ध शंख जिनालय के लिए भूमिदान दिया था । पुलकेशि प्रथम का उत्तराधिकारी उसका बेटा कीर्तिवर्मा प्रथम था । उसके शासन काल के एक लेख ( १०७ ) के कन्नड अंश से ज्ञात होता है कि कीर्तिवर्मा ने कुछ सरदारों के निवेदन पर जिनेन्द्र मन्दिर के पूजा विधान के लिए. कुछ खेत प्रदान किये थे । इसी तरह उक्त लेख के संस्कृत अंश से ज्ञात होता है कि उसने अपने सरदारों द्वारा निर्मापित जिनालय एवं दानशाला आदि के लिए भी कुछ खेतों का दान दिया था ।
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कीर्तिवर्मा प्रथम का बेटा पुलकेशि द्वितीय हुना जिसके काल का एक प्रसिद्ध लेख एहोले (१०८) से प्राप्त हुआ है, जिसे कविता के क्षेत्र में कालिदास एवं भारवि की कीर्ति पाने वाले जैन कवि रविकीर्ति ने रचा था । भारतवर्ष का तत्कालीन राजनीतिक इतिहास जानने के लिए यह लेख बड़े महत्त्व का है । इसमें पुलकेशि द्वितीय के पिता कीर्तिवर्मा और चाचा मंगलीश की सामरिक विजयों के उल्लेख के बाद पुलकेशि द्वारा राज्य प्राप्ति और उसकी विस्तृत दिग्विजय का वर्णन मिलता है । उक्त लेख के अनुसार पुलकेशि उत्तर भारत के सम्राट् हर्षवर्धन का समकालीन था और उसने दक्षिण की ओर बढ़ते हुए हर्ष का हर्ष (उत्साह) विगलित कर दिया था। लेख के अन्त में लिखा है कि प्रतापी पुल