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अधीनता में रहे । सेन द्वितीय पीछे स्वतन्त्र हो जाता है और संभव है कि उसके बाद के सभी वंशधर स्वतन्त्र थे । '
वंश के आदि पुरुष पृथ्वीराम के सम्बन्ध में ले० नं० १३० में कहा गया है वह एक जैन मुनि का विनीत छात्र था। उपर्युक्त लेखों से मालुम होता है कि कार्तवीर्य और मल्लिकार्जुन ने अपने दानों द्वारा जैन धर्म को अच्छी तरह संरक्षित किया था ।
१०. यादव वंश: - यह वंश अपनी उत्पत्ति विष्णु से मानता है (३१७) गर इसके प्रारम्भिक इतिहास के विषय में हमें कुछ नहीं मालुम । इस संग्रह के जैन लेखों से ज्ञात होता है कि वे राष्ट्रकूटों के तथा पीछे कल्याणी के चालुक्यों के सामन्त थे । ईस्वी १२ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यह शक्ति कुछ स्वतन्त्र होती दिखती है । प्रारम्भिक यादवों को सेउण देश के यादव भी कहते हैं । पीछे इन्होंने देवगिरि में अपने राज्य को स्थापित किया था ।
प्रस्तुत संग्रह में इस वंश के राजा सेउरणचन्द्र तृतीय से लेकर रामदेव या रामचन्द्र तक के शिला लेख संग्रहीत हैं । ले० नं० ३१७ से ज्ञात होता है कि राजा सेउ चन्द्र तृतीय ने चन्द्रप्रभ भगवान् के मन्दिर के खर्च के लिए अंजनेरी मैं तीन दुकानें दान मे दी थीं पर उसकी राजनीतिक स्थिति का पता नहीं चलता । ४२१ वें लेख में उल्लेख है कि होय्सल नृप वीरबल्लाल द्वितीय ने, सन् १९६८ के लगभग सेऊणदेश के किसी राजा को जिसके पास अगणित हाथी घोड़े तथा वीर योद्धा थे, युद्ध में अकेले ही हराया । इतिहास को देखने से पता चलता है कि उस समय वहाँ भिल्लम पञ्चम का बेटा जैत्रपाल (जैतुगि) प्रथम शासन कर रहा था । उसके शौर्य सम्पन्न विशेषणों से ज्ञात होता है कि उस समय तक यादवों का प्रभाव एवं स्थिति अच्छी हो गई थी । जैत्रपाल प्रथम का बेटा सिंहरण हुआ जिसका राज्य सन् १९६१ ई० से
१२४७ ई० तक था ।
१. विशेष इतिहास के लिए देखो, दिनकर देसाई, महामण्डलेश्वराज अण्डर fe चालुक्यान श्राफ कल्याणी, बम्बई, १६५१