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इसके ३७ में वर्ष को द्योतन करने वाला एक समाधिमस्थ स्मारक लेख ( ४६० ) प्रस्तुत संग्रह में दिया गया है। इसी तरह सिंह के पौत्र कन्हार देव या कन्धार देव के समय का वैसा ही एक लेख ( ५०२ ) इसी संग्रह में है । इस वंश से सम्बन्धित ले० नं० ५११ में वंशावली वाला भाग त्रुटित है, तो भी इससे इतना ज्ञात होता है कि कन्धार देव का सहोदर महदेव था तथा कन्धारराय का पुत्र रामदेव ( रामचन्द्र ) था । उक्त लेख के अनुसार दण्डेश कूचिराब ने अपने स्वामी महदेव के करकमलों द्वारा अपनी पत्नी के नाम पर निर्मार्पित लक्ष्मी जिनालय को कुछ दान दिलवाया था। रामचन्द्र या रामदेव के राज्य काल के ५. लेख ( ५१३, ५३५, ५३८, ५४०, ५४१ ) इस संग्रह में हैं जो कि दाताओं द्वारा दिये दान के स्मारक हैं । सन् १२६२-६५ के बीच के ले० नं० ५३८, ५४०, ५४१ में उक्त राजा की भुजबल प्रौढ प्रताप चक्रवर्ती श्रादि उपाधियाँ दी गयी हैं ।
होयसल वंश के समान ही इनका रोज्य मुसलमानों ने नष्ट कर दिया । ११. संगीतपुर के सालुव मण्डलेश्वरः - १५ वीं ई० के उत्तरार्ध से लेकर १६ वीं के उत्तरार्धं तक संगीतपुर के शासक जैन धर्म के नेता के रूप में हमारे सामने आते हैं । तौलव देश ( उत्तर कनारा जिला ) में संगीतपुर, जिसे हाति भी कहते हैं, एक समृद्ध नगर था । उस नगर के शासक काश्यप गोत्र तथा सोमवंश के कहलाते थे । ले० नं० ६५४ में इस नगर का बड़ा सुन्दर वर्णन है । वहाँ का शासक महामण्डलेश्वर सालुवेन्द्र था जोकि चन्द्रप्रभ भगवान् का भक्त था । लेख में उक्त राजा के अनेक विशेषण दिये गये हैं जिससे विदित होता है कि वह राज्य और जैनधर्म दोनों को अच्छी तरह पालन कर रहा था । उसके मंत्री का नाम पद्म या पद्मण था जो कि शाही खान्दान का था । उसे सन् १४८८ में सालुवेन्द्र महाराज ने एक ग्राम भेंट दिया जिसे उसने जिनधर्म की उन्नति के लिए दान में दे दिया ( ६५४ ) । इसी मंत्री ने १० वर्ष बाद सन् १४६८ में पद्माकरपुर में एक चैत्यालय बनवाकर पार्श्व जिन की स्थापना की तथा अनेक दान दिये ( ६५८ ) ।