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( सन् १८८२८ केलसुरु से प्राप्त ) एवं नं० ७६४ ( सन् १८२६ ) नरसीपुर से प्राप्त नये हैं, जो कि मुम्मुडि कृष्णराज चतुर्थ के राज्यकाल के हैं । इसका राज्य सन् १७६६ से १८३१ ई० तक था। पहले भाग के लेख नं० ४३३, ६८ एवं ४३४ इस संग्रह में लेख नं० ७५२, ७५७ एवं ७६६ के रूप में संगृहीत हैं, जो कि इसी नरेश के समय के समझने चाहिये, कृष्ण राज तृतीय ( राज्य काल ई० १७३४ -१७६१ ) के नहीं ।
ई. दक्षिण भारत के छोटे राजवंश एवं सामन्त गण ।
१. सेन्द्रक कुल:- इस कुल की उत्पत्ति नागवंश से कही जाती है। लेख नं० १०६ में इन्हें भुजगेन्द्रान्वय का कहा गया है । इनका देश नागरखण्ड था जो कि बनवासि प्रान्त का एक भाग था। पहले ये कदम्बों के सामन्त थे पर पीछे कदम्बों के पतन के बाद बादामी के चालुक्यों के सामन्त हो गये । प्रस्तुत संग्रह के लेख नं० १०४, १०६ एवं १०६ से ज्ञात होता है कि ये जैन धर्मानुयायी थे । इस वंश के सामन्त भानुशक्ति राजा ने कदम्ब हरिवर्मा से जैनमन्दिर की पूजा के लिए दान दिलाया था ( १०४ ) तथा चालुक्य जयसिंह ( प्रथम ) के राज्य में सामन्त सामियार ने एक जैन मन्दिर बनवाया था ( १०६ ) | लेख नं० १०६ से ज्ञात होता है कि चालुक्य रणराग के शासन काल में विजयशक्ति के पौत्र एवं कुन्दशक्ति के पुत्र दुर्गशक्ति ने पुलिगेरे के प्रसिद्ध शंख जिनालय के लिए भूमिदान दिया था ।
२. नीर्गुन्द वंश: - इस वंश का उल्लेख गंगवंश के एक लेख नं० १२१ में मिलता है। वहां लिखा है कि बाणकुल को भयमीत करने वाला दुड्डु नाम का एक नीन्द नामक युवराज हुया । उसका बेटा परगूल पृथ्वी नोर्गुन्द राज हुआ उसकी पत्नी कुन्दाचि थी जिसकी माता पल्लव नरेश की पुत्री थी तथा उसका पिता संगर कुल का मरुवर्मा था । परशूल और उसका पिता दुण्डु दोनों जैन थे । उसकी पत्नी कुन्दाचि ने लोक तिलक नामक जैन मन्दिर बनवाया। जिसके लिए:
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