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श्रवणवेल्गोल में चतुविशति लिन मन्दिर निर्माण कराया । यह मन्दिर प्राजकल भी भएडारिवस्ति कहलाता है । उक्त लेख में लिखा है कि एक समय नरसिंह अपनो दिग्विजय के समय श्रवणवेलगोल आये और उक्त जिनालय को देख प्रसन्न हो उसका नाम भव्य चूड़ामणि रखा । नरसिंह ने उस समय मन्दिर के पूजनादि प्रवन्ध के लिए 'सवणेरु' नामक ग्राम दान में दिया । यही बात ले० नं० ३४८ में भी लिखी है। अन्य लेखों से प्राप्त इसके सेनापतियों एवं महाप्रधानों का वर्णन दूसरे प्रकरण में दिया गया है । इन लेखों से ज्ञात होता है कि उक्त नरेश ने अपने शासनकाल में होय्सल वंश को समृद्धि के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं किये । केवल अपने पिता द्वारा अर्जित राज्य वैभव और उसके यश का ही उपयोग करता रहा । लेख नं० ३३६ में इसकी एक उपाधि 'जगदेकमल्ल' दी गई है जो सूचित करती है कि यह चालुक्यों का आधिपत्य स्वीकार करता था। ___ नरसिंह का उत्तराधिकारी उसका प्रतापी वेटा बल्लाल द्वितीय हुआ जिसे लेखों में वीर बल्लाल कहा गया है । यह बड़ा बहादुर राजा था । इसने होय्सल वंश को स्वतन्त्र बनाया और राज्य में शान्ति एवं सुख समृद्धि स्थापित की । इसका राज्य सन् ११७३ से १२२० ई० तक अर्थात् ४८ वर्ष के लगभग रहा। इस नरेश के राज्यकाल के भी अनेकों लेख इस संग्रह में दिये गये हैं । लेख .नं० ३७३ ( सन् १९६८) इसकी युवराज अवस्था का है जिससे ज्ञात होता है कि यह अपने पिता के शासनकाल में सक्रिय सहयोग देता था । इसके जैन गुरु का नाम वासुपूज्य सिद्धान्त देव था । लेख नं. ३७६ और ३८१' इसके राज्य के प्रथम वर्ष के हैं । ले० नं० ३७६ से विदित होता है कि अपने पट्टबन्धोत्सव में महादान दिये थे । शक सं० १०६५ की श्रावण शुक्ला एकादशी (दशमी) रविवार को उसका राज्याभिषेक हुआ था । उस दिन उक्त लेखा
१. वही-ले० नं० ४६१.