Book Title: Jain Sampraday Shiksha Athva Gruhasthashram Sheelsaubhagya Bhushanmala
Author(s): Shreepalchandra Yati
Publisher: Pandurang Jawaji
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जैनसम्प्रदायशिक्षा |
क्षमा तुल्य कोइ तप नहीं, सुख सन्तोष समान ॥ ना तृष्णा सम व्याधि हू, धर्म दया सम आन ॥ १८ ॥ क्षमा के बराबर कोई तप नहीं, सन्तोष के बराबर कोई सुख नहीं, तृष्णा के समान कोई रोग नहीं और देया के समान कोई धर्म नहीं है ॥ १८ ॥
२८
तृष्णा वैतरणी नदी, यम है क्रोध जु दोष ॥ कामधेनु विद्या सही, नन्दन वन सन्तोष ॥
तृष्णा वैतरणी नदी के समान है ( अर्थात् इस की थाह नहीं मिलती है), कोधरूपी दोष यमराज के सदृश है, विद्या कामधेनु के समान है ( अर्थात् सब प्रका रके वांछित फल देने वाली है) और सन्तोष नन्दन वन के समान है ( अर्थात् सुख और विश्राम का बाग है ) ॥ १९ ॥
१९ ॥
गुण पूछहु तजि रूप को, कुल तजि पूँछहु शील ॥
विद्या तजि सिधि पूँछिये, भोग पूँछ धन ढील ॥ २० ॥
रूप को छोड़कर विद्या को पूंछो, कुल को छोड़कर शील को पूंछो, विद्या को छोड़कर सिद्धि को पूछो तथा धन को छोड़कर भोग को पूछो, ( अर्थात् यदि गुणवान् है तो रूप हो तो क्या, अच्छा शीलवान् अर्थात् आचारवान् पुरुष हैं तो उसकी जाति से क्या प्रयोजन है अर्थात् जाति उत्तम हो तो क्या और उत्तम न हो तो क्या, जो प्रत्यक्ष सिद्धि दिखलाता है तो उस की विद्या का क्या पूछना और सदा भोग करता है, अर्थात् खाता खरचता है तो फिर उस के पास धन का क्या पूछना ) ॥ २० ॥
गुण आभूषण रूप को, कुल को शील सँयोग |
विद्या भूषण सिद्धि है, धन को भूषण भोग ॥ २१ ॥
रूप का भूषण (गहना) गुण है, जाति का भूषण शील (अच्छा चाल चलन) है, विद्या का भूषण सिद्धि है और धन का भूषण भोग है ( तात्पर्य यह है कि गुण के विना रूप किसी काम का नहीं, सिद्धि के विना विद्या कुछ काम की नहीं और भोग के बिना धन किसी काम का नहीं है ) ॥ २१ ॥
भूमि पढ्यो जल होत शुचि, पतिव्रत से शुचि नार ॥ प्रजापाल राजा शुची, विप्र सँतोष सुधार ॥ २२ ॥ पृथिवी पर पड़ा हुआ जल पवित्र है, पतिव्रता अर्थात् शीलवती स्त्री पवित्र है, प्रजा की पालना करनेवाला राजा पवित्र है, तथा सन्तोष रखनेवाला ब्राह्मण पवित्र है ॥ २२ ॥
१ - दया का लक्षण ९१ वे दोहे की व्याख्या में देखो ॥
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