________________ जैन इतिहास की उत्पत्ति एवं विकास की मान्यताओं का प्रतिफलन हुआ हैं। सांतवी शताब्दी में "भक्तामर स्तोत्र का प्रणयन आचार्य मानतुंग ने किया। दिगम्बर एंव श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों के लिए यह समादूत है। यह स्तोत्र 48 पद्यों में है। इसमें आदि तीर्थकर ऋषभ की स्तुति महापुरुषों के चरित्रों को निबद्ध करने की परम्परा ई० सन् की सातवीं शदी से ही प्रारम्भ होती हैं। रविण ने एंव जटासिंह नन्दी ने रामायण की शैली पर अपने ग्रंथों का सृजन किया है। प्राकृत में जिस रामकथा को विमलसूरि ने निबद्ध किया था उसी रामकथा को संस्कृत में रविषेण ने ललित छन्दों में निबद्ध किया है। रविषेण ने रामायण के पात्रों के चरित्र को बहुत ही उदार एंव उन्नत रुप में प्रस्तुत किया है। राक्षस और वानर वंश को विद्याधर राजा एंव अंजना,केकयी,सीता एंव मन्दोदरी आदि पात्रों के चरित्रों को सहानुभूतिपूर्वक चित्रित कर उन्हें दया,ममता एंव वात्सल्य का स्त्रोत सिद्ध किया है। पद्मचरित एंव बंरागचरित समयकालीन समाज एंव संस्कृति का दिग्दर्शन कराते हैं। 837 ई० में “विषापहार स्तोत्र" की रचना धनंज्जय द्वारा की गयी। इस स्तोत्र में समाज में विषापहार मणि औषधियों एंव मंत्र और रसायनों की उपयोगिता एंव प्रयोग की जानकारी होती हैं। इसके अतिरिक्त धनज्जय ने अट्ठारह सर्ग प्रमाण "द्विसन्धान महाकाव्य 54, नाम-मालाकोष आदि ग्रंथ भी लिखे। नाममाला में 206 श्लोक हैं। श्लोक 5 व 6 में भूमि तथ पृथ्वी के 26 पर्यायवाची नाम गिनाये हैं। श्लोक 7 में पर्वत,राजा एंव वृक्ष के 27-27 पर्यायवाची 81 नामों की रचना एक छोटे से श्लोक में की है। षटखण्डागम की संस्कृत प्राकृत मिश्रित मणि प्रवाल भाषा में 72 हजार श्लोक प्रमाण “धवलाटीका' एंव गुणधर के कषायपाहुड पर 20 हजार श्लोक प्रमाण 'जयधवलाटीका आठवी शताब्दी में वीर-सेनाचार्य द्वारा लिखी गयी जिससे गणित ज्योतिष,भूगोल,समाजशास्त्र,राजनीतिशास्त्र एंव तत्कालीन समाज के अनेकानेक विषयों की जानकारी होती हैं। ... न्याय विषयक संस्कृत जैन साहित्य की महत्वपूर्ण रचना महादार्शनिक अंकलदेव द्वारा 8 वीं शदी में हुयीं। लधीस्त्रयवृत्ति,न्यायविनिश्चय,सिद्धिविनिश्चय-प्रमाण संग्रह,तत्वार्थ-राजवार्तिक एंव अष्टशती प्रभृति ग्रंथों की रचना इसी शताब्दी में हुयी। अकंलक के पश्चात् आचार्य विद्यानन्दि ने अन्न-परीक्षा,पत्र-परीक्षा,तत्वार्थलोकवार्तिक एंव युकत्यानुशासन पर टीका करके अकंलक के न्याय विषयक साहित्य को अधिक परिमार्जित किया है। आचार्य हरिभद्र ने योग एंव दर्शन पर “षड्दर्शनसमुच्चय":" एंव अनेकान्तजयपताका नामक ग्रंथों का निर्माण किया। हरिभद्वाचार्य द्वारा 1440 ग्रंथों के निर्माण करने एंव उनमें से 50-60 ग्रंथों के प्राप्त होने के उल्लेख मिलते हैं। आठवी शताब्दी में ही जैन साहित्य में एक नया मोड़ दिखायी देता है।