________________ चरितकाव्य __ . 135 बारह अनुप्रेक्षाऐ चरितकाव्यों से मुनियों द्वारा सांसारिक सुखों में अनासक्त भाव लाने एंव प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर उन्मुख होने के लिए बारह अनुप्रेक्षाओं के पालन करने की जानकारी होती है२४६ | संसार क्षणभंगुर है इसमें जो कुछ भी है वह अनित्य है अतएव आसक्ति करना निष्फल है इस प्रकार के चिन्तन को अनित्य-भावना५० कहा गया है। इस अनित्य संसार चक्र में जरा, जन्म, मृत्यु आदि विपत्तियों से जीव की कोई रक्षा नहीं कर सकता केवल आत्मा ही इसे बचा सकती है। इस प्रकार के भावों का उदय होना ही अशरण भावना है। - मनुष्य को संसार में कर्मो के अनुसार र्तियंच, देव, मनुष्य एंव नरक गति प्राप्त होती है एंव कर्मो के भेद से ही मोहवश दुःख प्राप्त होता है यह चिन्तन संसार भावना है। जीव अकेले ही उत्पन्न होकर अपने कर्मो का फल अकेले ही भोगता है, अकेले ही मृत्यु को प्राप्त करता है इस तरह के विचार जब मुनि के हृदय में उत्पन्न होते हैं उसे एकत्व भावना५३ कहा गया है। इन्द्रिय एंव इन्द्रिय ग्राह्य पदार्थ देहादि आत्मा से भिन्न है देह एंव आत्मा का स्थायी सम्बन्ध नहीं है। यह अन्यत्व भावना है२५४ | यह शरीर रुधिर, मॉस, पिण्ड का बना है, अपवित्र है इससे अनुराग करना निष्फल है यह अशुचित्व भावना है२५५ | मन, वचन एंव काय की प्रवृत्तियों से किस प्रकार कर्मो का आस्त्रव होता है इसका चिन्तन ही "आस्त्रव भावना है२५६ / मुनियों के लिए महाव्रत, समिति, गुप्तियों, धर्म, परीषह एंव अनुप्रेक्षाओं का पालन करना आवश्यक बतलाया गया है उनसे किस प्रकार कर्मास्त्रव को रोका जा सकता है ये चिन्तन ही संवर भावना है२५७ / व्रतों एंव बाह्य एंव आभ्यन्तर तप के द्वारा बंधे हुए कर्मो को किस प्रकार रोका जा सकता है मुनियों द्वारा इस प्रकार चिन्तन करना उनकी निर्जरा भावना है५८ | इस अनन्त आकाश, उसके लोक एंव अलोक विभाग, उनकी उत्पत्ति स्थिति एंव प्रलय, अनादित्व, अकर्तृत्व, एंव लोक में विद्यमान सभी जीवादि द्रव्यों का चिन्तन लोकभावना है२५६।। जैन धर्म में मान्य त्रयरत्नों के पालन से ही बार बार संसारगमन के बाद प्राप्त मानव जन्म को सार्थक किया जा सकता है यह बोधि-दुर्लभ है२६ / जन्म, जरा, मृत्यु एंव महाभयों की औषधि रुप जो दस प्रकार का धर्म जिनेन्द्र देव द्वारा कहा गया है वह "धर्मभावना है२६१ |