________________ अभिलेख 186 7 कोलित्तूर संघ लेखों में कोलित्तूर संघ के एक आचार्य के समाधिमरण का उल्लेख है३६८ | सम्भवतः से संघ देशीय गण की स्थानीय शाखायें ज्ञात होती हैं। लेखों से प्राप्त विभिन्न संघों के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि प्रायः प्रत्येक संघ गण गच्छ, अन्वय आदि में विकसित होता है जिनमें अलग अलग गुरु शिष्य परम्पराऐं प्राप्त होती हैं इन गण, कुल, शाखा, सम्भागों का वर्णन ई०पू० से ही प्राप्त होता है। ये कल्पसूत्र में भी पाये जाते हैं। गणों का नाम उनके संस्थापक के नाम पर रखे गये बहुत से कुल, अन्वय, शाखाओं का नामकरण व्यक्तिगत एंव क्षेत्रीय आधारों पर हुआ। गच्छों का विकास शिष्य एंव प्रशिष्यों की परम्परा पर अधिक विकसित हुए। लेखों में सबसे अधिक वर्णन मूलसंघ से सम्बन्धित गणों एंव गच्छों का पाया जाता है। संघों के आचार्यो के वर्णनों से स्पष्ट है कि इनमें व्यावहारिक दृष्टि से स्पष्ट भेद नहीं था। सभी आचार्यमुनि जिनालय, मठ आदि बनवाते एंव विभिन्न राजवंशों एंव धार्मिक व्यक्तियों द्वारा खेत, घर, बगीचे, ग्राम एंव भूमि दान में दी जाती थी। प्रत्येक संघ अपने यंत्र-मंत्र एंव ज्योतिष आदि का आश्रय लेकर अपने प्रभाव को बढ़ाते थे। संदर्भ ग्रन्थ 1. जै०सा०बृ० ई० भाग 6 पृ० 466 2. ए०० 4 पृ० 210, 27 पृ० 64 3. जै०शि०सं० भा० 3 ले०नं० 438 4. वही ले०नं० 386 वही भाग 4 लेन० 106, 107, 265 6. वही भाग 2 लेन० 206 7. वध०सम० 1/12/41 जै०शि०सं०, भाग 2 ले०नं० 277 6. वही लेन० 221, 228 भाग०४ ले०नं० 86 . 10. वही भाग 3 लेन० 333, 376 11. वही भाग 4 लेन० 116, भाग 3 लेन० 305, ए०३०२४ पृ 202 12. जै०शि०सं० भा० 2 लेन० 168 13. वही भाग 3 ले०नं० 320 14. वही भा०२ ले०न० 146, 206