________________ अध्याय - 8 जैन ऐतिहासिक तथ्यों पर हिन्दू प्रभाव जैन मान्यताओं एंव प्राचीन साहित्य के अनुसार भोगभूमि के पश्चात् कर्ममूलक जगत का उदय हुआ। कर्मभूमि की प्रतिष्ठा का श्रेय प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव को ही दिया गया है। इन्होंने धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक एंव राजनैतिक व्यवस्था की ओर भी ध्यान दिया / वैदिक साहित्य में ऋषभदेव को एक महान तपस्वी एंव आराध्य के रुप में वर्णित किया गया है | ऋषभदेव के पश्चात् अन्य तीर्थकंरों ने जैन परम्परा की विभिन्न धाराओं को आगे बढ़ाया। पार्श्वनाथ ने अपनी साधना एंव तपश्चर्या के बल पर इस बात को जनमानस में पहुँचाया कि अहिंसा ही धर्म की आत्मा है। समन्वय की भावना ही संस्कृति का बल एंव जीवन है। महावीर ने अहिंसा स्याद्वाद, कर्मवाद एंव साम्यवाद को मानव जीवन के सुख एंव शान्ति का माध्यम माना। महावीर के पश्चात् जैन साहित्यकारों एंव आचार्यो ने पूर्व की परम्परा का संरक्षण एंव संवर्द्धन किया। जैन संस्कृति के विकास में हिन्दू संस्कृति का पर्याप्त योगदान रहा। हिन्दू संस्कृति के अनुरुप ही जैन संस्कृति ने मानव के आन्तरिक जीवन को शुद्ध करने एंव बाह्य साधनों द्वारा आन्तरिक शुद्धता की ओर ले जाने में सहायक आचार एवं विचारों को महत्वपूर्ण स्थान दिया। जैनधर्म ने अपनी विचार एंव जीवन सम्बन्धी व्यवस्थाओं में संकुचित दृष्टिकोण को नहीं अपनाया। अपने धार्मिक सिद्धान्तों एवं इतिहास को स्थायी एवं व्यापक रुप देने के लिए उदारवादी एंव समन्वयवादी दृष्टिकोण को अपनाया। इसी तरह जैनाचार्यो ने लोकभावनाओं के सम्बन्ध में उदारवादी दृष्टिकोण को स्थान दिया। वैदिक परम्परा में संस्कृत साहित्य को अत्यन्त आदर का स्थान दिया गया है। उसे ही देवी वाक् मानकर हिन्दू आचार्यो एंव इतिहास लेखकों ने सदैव उसी में साहित्य सृजन किया। जैनाचार्यों ने भी अपना साहित्य अधिकांशतः संस्कृत भाषा में लिखा जिससे वैदिक भाषा संस्कृत का उत्तरोत्तर विकास हुआ लेकिन जैनाचार्यो ने समय एवं क्षेत्रीय आधार पर धर्म उपदेश के लिए लोकभाषाओं का उपयोग किया। छठी शताब्दी ई०वी० के उत्तरयुगीन जैन साहित्य से प्राप्त तथ्यों से ज्ञात होता है कि जैन इतिहास लेखकों ने धर्म एंव दर्शन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है जिसमें तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एंव धार्मिक जीवन के विविध पक्षों का