________________ अभिलेख 175 मूर्ति स्थापना करने के उल्लेख मिलते हैं२१७ / विशेषकर ये मूर्तियाँ आसनस्थ बनायीं गयीं हैं२१: / मूर्तियों में विशेषकर शाम्तिनाथ, पार्श्वनाथ, ऋषभ, महावीर एंव चन्द्रप्रभ की मूर्तियाँ मन्दिरों में प्रतिष्ठित की जाती थी२१९ | पार्श्वनाथ की मूर्ति खड्गासनस्थ होने एंव सर्प के सप्त फणधारी छत्र होने की जानकारी मिलती है / लेखों से चौबीस तीर्थकरों की मूर्ति की प्रतिष्ठा एक ही मन्दिर में होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं२२१ / ये मूर्तियॉ पीतल द्वारा निर्मित होती है२२२ / लेखों में इन मूर्तियों की स्थापना का समय भी प्राप्त होता हैं२२३ / लेखों से तीर्थकंर की मूर्ति के समान ही बाहुबलि एंव गोम्मटदेव पद्मावती देवी की प्रतिमाओं की पूजा हेतु दान देने के उल्लेख प्राप्त होते है२२० / सोने चॉदी, मूंगा, रत्नों एंव पंचधातु की प्रतिमाएं होने की जानकारी होती हैं ये मूर्तियाँ नामोल्लेख से युक्त होती है२२५ | __जैन शास्त्रों में प्रत्येक तीर्थकर के यक्ष एंव यक्षी होने का उल्लेख मिलता है। देवगढ़ के मुख्य मन्दिर की भित्तियों पर जो तीर्थकर की जैनमूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं उनके साथ उनकी यक्षियों की मूर्तियाँ एंव शीर्षक भी प्राप्त होते हैं। इनमें समयोल्लेख भी किया गया है२६ | यक्षिणियों के उत्कीर्ण नाम ये हैं - भगवती सरस्वती-अभिनन्दन, सुलोचना-पद्मप्रभ, मयूरवाहिनी-सुपार्श्व, सुमालिनी-चन्द्रप्रभ, बहुरुपी-पुष्पदन्त, श्रीयादेवी-शीतलनाथ, बडी-श्रेयांस, सिद्धदू-मुनिसुब्रत अभंगरतिन-वासुपूज्य, सुलक्षणा-विमलनाथ, अनन्तवीर्या, - अनन्तनाथ, सुरक्षित-धर्मनाथ, श्रीयादेवी-शांतिनाथ, अर्दिकरवि-कुन्थुनाथ, तारादेवी, - अरनाथ, हिमावती-मल्लिनाथ, हयवई-नमिनाथ एंव अपराजिता-वर्धमान।। जैन अभिलेखों से ज्ञात होता है कि अधिकांशतः जैन मूर्तियों की पहचान उन पर उत्कीर्ण लांच्छनों एंव परिचायक चिन्हों से होती है। यथा - शान्तिनाथ की हिरन से, मल्लनाथ की कलश से, सम्भवनाथ की अश्व से, पदमप्रभ की कमल से एंव आदिनाथ की वृषभ से / अभिलेखों में इन तीर्थकरों के मन्दिरों के लिए - चैत्य, बसति, हर्म्य, मन्दिर, वैश्य, विहार, भुवन, प्रसाद, एंव स्थान शब्दों का प्रयोग हुआ है। लेखों से जिन मन्दिर के दोनों ओर लोकपालों की मूर्तियाँ बनाने की जानकारी होती है२२७ / लेखों से तीर्थकंरों की मूर्तियों के अभिषेक, पूजा एंव कल्याणोत्सव सम्पन्न किये जाने की जानकारी होती है२८ | दान : (दातव्य वस्तुएँ) जैन अभिलेखीय साहित्य से ज्ञात होता है कि दान धर्म का एक आवश्यक अंग था। मन्दिर निर्माण प्रक्रिया में वृद्धि होने से भूमि एंव ग्राम दान विशेषतः दिये जाते थे। लेखों से मन्दिरों के जीर्णोद्धार, निर्माण, प्रबन्ध, दैनिक प्रतिमा पूजा,