Book Title: Jain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Author(s): Usha Agarwal
Publisher: Classical Publishing Company

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Page 201
________________ अभिलेख 183 आधार पर इसका उदय हुआ। इसका सर्वप्रथम उल्लेख १०वीं शताब्दी के लेखों में प्राप्त होता है। जिससे इस गण के मन्दिर होने एवं चंगाल्व नरेशों द्वारा संरक्षण प्राप्त होने की जानकारी होती है / 300 लेखों सं पनसोगे बलि की आचार्य परम्परा भी ज्ञात होती है / 201 इस बलि के आचार्यों द्वारा समाधिमरण करने२०२ एवं मूर्ति स्थापित करने की जानकारी होती है / 203 पुस्तकगच्छ - इंगुलेश्वर बलि लेखों से पुस्तक गच्छ के दूसरे उपभेद हंगुलेश्वर बलि की जानकारी होती है३०४ / इस बलि के आचार्य प्रायः कोल्हापुर के आस-पास रहते थे२०५ / लेखों से गुरु शिष्य परम्परा क्रमानुसार प्राप्त नहीं होती। आर्यसंघगृहकुल राजा उद्योतकेशरी के खण्डगिरि से प्राप्त 10 वीं शताब्दी के लेख से देशीयगण के इस आर्यसंघग्रहकुल के आचार्य कुलचन्द्र के शिष्य शुभचन्द्र की इ चन्द्रकराचार्याम्नाय कल्चुरि राजा गयावर्ण के सामन्त राष्ट्रकूट गोल्हण देव के 12 वीं शताब्दी के एक लेख से इस अपम्नाय के आचार्य सुभद्र द्वारा मन्दिर की प्रतिष्ठा होने की जानकारी होती है। ई मैणदान्वय देशीगण के इस उपभेद की जानकारी 13 वीं शताब्दी के लेख से होती है। लेखों से ज्ञात होता है कि मूलसंघ के देंशीगण का उल्लेख प्रायः मूलसंघ देशीगण के नाम से हआ है३०६ / कुछ लेखों में देशीगण का उल्लेख बिना किसी अन्वय, आदि के उल्लेख के हुआ है३१० | 4 सूरस्थगण लेखों से ज्ञात होता है कि मूल संघ का एक गण सूरस्थगण नाम से प्रसिद्ध था। लेखों में इसका सूरस्त, सुराष्ट्र एंव सूरस्थ नाम से उल्लेख है३११ / सूरस्थगण प्रारम्भ में मूल संघ के सेनगण से सम्बन्धित था।१२ | सूरस्थ गण का सर्वप्रथम उल्लेख गंगराजा मारसिंह के सन् 662 के ताम्रपत्र में प्राप्त होता है। इसमें प्रभाचन्द्र कल्नेलदेव-रविचन्द्र-एलाचार्य इस आचार्य परम्परा का वर्णन है१३ |

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