________________ 186 जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास इसका प्रभेद माना गया है। श्रवणवेल्गोला से प्राप्त कई लेखों में मूलसंघ नन्दीगण पुस्तकगच्छ की आचार्य परम्परा दी गयी है जो यापनीय संघ के नन्दिगण के आचार्यो से मिलती हुयी है३३७ / पुन्नागवृक्षमूलगण पुन्नागवृक्षमूल गण के आचार्यों को दान देने के उल्लेख प्राप्त होते हैं३३८ | शिलाहार वंश के सन् 1165 के एक लेख से इस गण की गुरु परम्परा ज्ञात होती है३३६ | कुमुदिगण नंवी शताब्दी के एक लेख से इस गण के महावीर गुरु के शिष्य अमरमुदल गुरु द्वारा देशवल्लभ जिनालय निर्माण कराने की जानकारी होती है। लेखों से इसके कुछ आचार्यों का भी वर्णन प्राप्त होता है३४० / कण्डूरगण लेखों से यापनीय संघ के इस कण्डूर गण की गुरु शिष्य परम्परा एंव उन्हें दान देने की जानकारी होती है३४१ / चालुक्य सम्राट विक्रमादित्य षष्ठ के लेख में यापनीय संघ को सुधर्म गणधर की परम्परा से सम्बन्धित बतलाते हुए कण्डूरगण के कुछ आचार्यो का वर्णन किया गया है लेकिन उनमें परस्पर सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है३४२ / कारेयगण' रट्ट वंशीय नरेशों के लेखों से ज्ञात होता है कि प्रथम नरेश पृथ्वी राम के गुरु कारेयगण के गुणकीर्ति के शिष्य इन्द्रकीर्ति थे४३ / लेखों से गुणकीर्ति से लेकर देवकीर्ति तक इस गण की आचार्य परम्परा ज्ञात होती है३४४ | रट्टवंशीय राजाओं द्वारा इस गण के आचार्यों को दान दिये गये४५ | ये गण यापनीय संघ से ही उद्भूत था३४६ | लेखों से स्पष्ट होता है कि यापनीय संघ चौथी शताब्दी से 10 वीं शताब्दी तक सुसंगठित रुप में था। इस संघ के पुन्नागवृक्षमूलगण, बलहारिगण, और कण्डूरगण मूलसंघ में शामिल कर लिये गये। नन्दिसंघ पहले द्रविण संघ एंव पीछे मूलसंघ में मिल गया। ___ यापनीय संघ दक्षिण भारत के श्वेताम्बर एंव दिगम्वर सम्प्रदाय के आचारों विचारों का मिश्रित रुप था। इस संघ के आचार्य दिगम्बरों के समान नग्न रहते, मोरपिच्छी रखते एंव पाणितलभोजी थे। इसके साथ ही ये मूर्तिपूजक थे और इनमें