Book Title: Jain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Author(s): Usha Agarwal
Publisher: Classical Publishing Company

View full book text
Previous | Next

Page 197
________________ अभिलेख 176 __राज्य की ओर से अन्य देवी देवताओं के मन्दिर निर्माण के उल्लेख मिलते हैं सम्भवतः ये देवी देवता अलग-अलग गाँवों से सम्बन्धित रहे होंगे२६५ / लेखों से तत्कालीन समाज में तन्त्र मन्त्रों का व्यापक प्रसार होने एंव मंत्रों द्वारा देवी को प्रसन्न करने की जानकारी मिलती है / तीर्थकंरों की मूर्तियों के पास उनकी अधिष्ठात्री देवी की मूर्तियों को स्थापित किया जाता था२६७ / अभिलेखीय साहित्य से तीर्थकरों के केवल ज्ञान उत्पन्न होने एंव निर्वाण प्राप्ति के समय इन्द्र द्वारा पूजा करने एंव राजा द्वारा दर्शन पूजा आदि करने के उल्लेख प्राप्त होते हैं२६८ | जैन समाज में यक्षयक्षिणियों की पूजा प्रथा विहित रही। ये मर्तियॉ तीर्थकरों के पार्श्वभाग में स्थापित की जाती थी२६६ / कुलोतुंगचोलदेव द्वारा यक्षी एंव त्रिछत्राधिपतिदेव की तॉबे की मूर्ति बनवाने, मन्दिर जीर्णोद्वार कराने एवं उसमें कोल्हु, चावल के क्षेत्र एंव दुकान दान में देने के वर्णन प्राप्त होते हैं२७० | जैन जगत में पूज्य यक्षयक्षिणियों की मूर्तियों का उल्लेख अभिलेखों में सामान्यतया पाया जाता है२७१ / लेखों में प्राप्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि जैनाचार्यों ने विभिन्न धार्मिक तत्वों में समन्वय स्थापित किया। अपने धर्म की रक्षा एंव व्यापक रुप प्रदान करने हेतु अन्य धर्मो के तत्वों को आत्मसात किया। उनका मूल उद्देश्य पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक अंगों एंव पूर्वो में आकलित जैन संस्कृति को विस्तृत एंव व्यापक रुप प्रदान करना था। जैनसंघ एंव आचार्यों की वंशावली जैन श्रमण भगवान महावीर से लेकर उनके गण एंव गणधरों की परम्परा का स्मरण करते हुए कालान्तर के गुरु शिष्य परम्परा के द्वारा अपने विद्यावंश की पूरी वंशावलि रखना चाहते थे। उनके धर्मशासक आचार्यो की गुरु शिष्य परम्परा राजवंशीय परम्परा की भॉति ही चलती थी२७२ / इसी कारण जैन परम्परा में जैन संघ की स्थापना हुयी। कल्पसूत्र में जैन संघ के संगठन की मूल रेखा ज्ञात होती है जैन संघ भिक्षुओं का वर्ग था जो अपने से छोटे भिक्षुओं को धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन कराते थे। अभिलेखों से जैन संघ में चार अधिकारियों - अन्तेवासिन्, गणिन्, वाचक एंव श्रद्धाकर के होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। अभिलेखों में “वाचक शब्द ई०पू० से ही प्राप्त होता है। ७वीं शताब्दी के लेखों में आचार्य, उपाध्याय, सूरि, गनिन, एंव भट्टारक शब्दों को पाते हैं। इनका स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण था। १०वी १२वीं शताब्दी के दिगम्बर लेखों में संघ के विशिष्ट अधिकारी को महामंडलाचार्य कहा गया है। ये शक्ति एंव अधिकार में श्रेष्ठ होते थे कभी कभी ये केवल आचार्य कहे जाते थे जो शिक्षा एंव दीक्षा देते थे। साधारण साधुओं को अन्तेवासि, अन्तेवासिन् शिष्य, शिष्याणी, समन एंव

Loading...

Page Navigation
1 ... 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268