________________ चरितकाव्य 133 अस्तेय महाव्रत भिक्षुओं के लिए तिलमात्र भी वस्तु बिना दिये लेने का निषेध है। साथ ही पर्वतों की गुफाओं, वृक्षकोटर एंव परित्यक्त धरों में, दूसरे को वाधा न पहुँचाना, सीमित अन्न ग्रहण करना वाद विवाद में न पड़ना, निस्पृहता इसकी पंच भावनाएं है२४०। ब्रह्मचर्य महाव्रत मुनि या भिक्षु के लिए सर्वथा कामभाव का त्याग आवश्यक बताया गया है। स्त्री पुरुष के मनोहर अंगों का निरीक्षण, श्रृंगारात्मक कथावार्ता सुनना, पूर्व की कामवासनाओं का स्मरण करना, कामोत्तेजक वस्तुओं का सेवन तथा शरीर श्रृंगार इन पॉचों प्रवृत्तियों का परित्याग करना इसकी पंच भावनाएं हैं। अपरिग्रह महाव्रत ममत्वभाव को आभ्यन्तर चेतना द्वारा नियन्त्रित करने के लिए सांसारिक वस्तुओं में तिलमात्र भी परिग्रह रखने का मुनियों के लिए निषेध किया गया है। अपरिग्रहवृत्ति को सुदृढ़ बनाने के लिए पॉचों इन्द्रिय सम्बन्धी मनोज्ञा वस्तुओं के प्रति राग एंव अमनोज्ञ के प्रति द्वेष भाव का परित्याग इन पाँच भावनाओं का पालन आवश्यक बताया गया है२४२ / ___ इन महाव्रतों का संयम एंव पूर्ण विरक्ति के साथ पालन न करने पर भिक्षु इस लोक एंव परलोक में दण्ड प्राप्त करते एंव संसारचक्र में पड़ते है२४३ | समिति महाव्रतों के साथ ही पॉच समितियों एंव तीन गुप्तियों का पालन जैन भिक्षुओं के आवश्यक था। ईर्यासमिति - चरितकाव्यों से ज्ञात होता है कि अहिंसा जैनधर्म का प्राण है। भिक्षुओं के लिए इससे पूर्णरुपेण बचने के लिए पृथ्वी पर चलने फिरने में चार पॉच हाथ आगे देखकर चलने एंव अन्धकार में आवागमन करना निषिद्ध है। यही ईर्या समिति है। भाषा समिति के अन्तर्गत निन्दा, हंसी, असत्य, कटु, अप्रिय वाणी का प्रयोग न करने की जानकारी होती है।