________________ जैन इतिहास लेखकों का उद्देश्य 47 जैन इतिहास लेखकों ने जन-साधारण में धार्मिक चेतना एंव श्रद्धाभक्ति उत्पन्न करने के लिए कथाओं की रचना की। तीर्थकरों की स्तुति, तीर्थकरों एंव मुनियों का नगर के बाहर उद्यान आदि में आना, एंव राजा द्वारा तत्कालोचित वेष में आना एंव उनका आदर सत्कार करना, उपदेश एंव संवाद के द्वारा अपनी शंकाओं का समाधान करना एंव तीर्थकरों को सर्वोच्च स्थान देना, आदि का वर्णन करके धर्म, अर्थ काम एंव मोक्ष के फल को स्पष्ट करना जैन इतिहास लेखकों की विशेषता है। काम, मोह, अहंकार, अज्ञान आदि रागादि भावनात्मक तत्वों को पात्रों के रुप में वर्णित करना इनकी विशेषता है। जैनधर्म एंव संस्कृति के बने अनेक तीर्थ एंव मन्दिर भी जैन इतिहास की अपनी विशिष्टता है। जैनाचार्यो एंव धर्मगुरुओं की मन्दिर निर्माण की प्रदत्त प्रेरणा एंव जैन श्राविका श्रावक आदि की धार्मिक, श्रद्धा एंव भक्ति भावना का कला में विशेष स्थान है। जैनमन्दिर आध्यात्मिक स्थान होने के साथ ही कलाकारों द्वारा मानसिक भावों द्वारा उसे अलंकृत करके वीतरागत्व की ओर उन्मुख करना अपनी विशेषता है। जैन इतिहास की विशेषता है कि जैन इतिहास किसी समुदाय या धर्मविशेष की संकुचित सीमा में बंधा हुआ नहीं है और न ही उसका क्षेत्र किसी एक देश या युग तक ही सीमित है। उसका सम्बन्ध प्राणीमात्र की भावना से हैं वह अतीत वर्तमान व भविष्य को अपने में समाये हैं। जैनों का नमस्कार मंत्र किसी व्यक्तिगत स्तुति की ओर संकेत नहीं करता उसमें पंच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है। वे चाहे किसी भी जाति धर्म मत से सम्बन्धित हो। जैन इतिहास लेखकों की यह समन्वय भावना विचार एंव आचार दोनों ही क्षेत्रों में प्राप्त होती है। विचार समन्वय की दिशा में अनेकान्तवाद महत्वपूर्ण देन है। आचार समन्वय की दिशा में जैन दर्शन में मुनिधर्म एंव गृहस्थ धर्म का पृथक् पृथक् निरुपण करके प्रवृत्ति एंव निवृत्ति में सामन्जस्य किया गया है। मुनिधर्म में महाव्रतों एंव गृहस्थधर्म में अणुव्रतों की व्यवस्था की गयी है। सांस्कृतिक एकता की दृष्टि से भी जैन इतिहास लेखकों ने समन्वय वादी दृष्टिकोण को अपनाया है। उनके द्वारा रचित साहित्य एंव विषय सार्वभौमिक एंव विश्वव्यापी हैं। कथासाहित्य से ज्ञात होता है कि बहुत सी जैनकथाऐं भारत के विभिन्न धर्मसम्प्रदायों के ग्रन्थों में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी प्राप्त होती हैं। विभिन्न तीर्थकरों की जन्मभूमि, दीक्षास्थली, तपोभूमि, निर्वाणस्थल अलग अलग रहे हैं। भगवान महावीर विदेह उत्तर-विहार में उत्पन्न हुए तो उनका साधना क्षेत्र व निर्वाण स्थल मगध दक्षिण विहार रहा। तेइसवें तीर्थकंर पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी में हुआ पर उनका निर्वाणस्थल बना सम्मेदशिखर / प्रथम तीर्थकर ऋषभ अयोध्या में जन्मे पर उनकी तपोभूमि रही कैलाशपर्वत और भगवान अरिष्टनेमि का कर्म व धर्मक्षेत्र रहा