________________ पुराण करने वाले के लिए राजा द्वारा दण्ड देने का विधान किया। इसके साथ ही पुराणों में अक्षत्रिय (क्षत्रियेत्तर) वर्णो को क्षत्रिय हो जाने की अनुमति दी गयी है। इस प्रकार का अनुमोदन परवर्ती काल में जैन समाज की अस्त व्यस्तता में कमबद्धता लाने के लिए दिया गया। इसमें विशेष रुप से ब्राह्मण वर्ण ने भाग लिया। क्षत्रिय धर्म स्वीकार कर लेने पर उन्हें ब्रह्म क्षत्रिय की संज्ञा दी गयी है७४ | आश्रम व्यवस्था जैन परम्परा में आश्रम सम्मुचय, आश्रमविकल्प, एंव आश्रमवाद के सिद्धान्त पाये जाते हैं। आश्रम सम्मुचय में चारों आश्रमों ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम एंव सन्यासाश्रम का उल्लेख मिलता है। जिनका पालन करना आवश्यक बतलाया गया है। जैन परम्परा में आश्रम विकल्प पर अधिक बल दिया है जिसमें ब्रह्मचारी से भिक्षु बनने और गृहस्थाश्रम में भिक्षुओं के रहने की अनुमति दी गयी है। जिन्हें कमशः मुनि-आर्यिका श्रावक श्राविका कहा गया है। आश्रमवाद का सिद्धान्त गृहस्थाश्रम की महिमा को बतलाता है जिसमें रहकर व्यक्ति प्रत्येक काम कर सकता है१७६ | जैन परम्परा में अर्हत एंव तीर्थकरों के शुद्ध वंश में उत्पन्न होने के उल्लेख मिलते हैं / जैन परम्परा में गणों का उल्लेख मिलता है जो हिन्दू पुराणों के चतुर्थ आश्रम से मिलता जुलता है। गण का सर्वप्रथम उदय श्रुतकेवली भद्रवाहु के नेतृत्व में बारह हजार भिक्षुओं के दक्षिण भारत में जाने एंव संगठित रुप में रहने से हुआ। पुरुषार्थ जैन परम्परा में धर्म अर्थ, काम एंव मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की कल्पना की गयी है। जैन धर्म निवृत्तिमार्गी एंव आचार प्रधान होने के कारण कर्म एंव पुनर्जन्म पर अधिक बल दिया गया है जिसे सम्यक् दर्शन चरित्रज्ञान इन त्रयरत्नों द्वारा प्राप्त कर सकते हैं१७८ | धर्म को अर्थ और काम का मूल मानते हुए धर्म को वृक्ष, अर्थ को उसके फल एंव काम को रस की संज्ञा दी गयी है१७६ | प्रथम तीन गृहस्थ के पुरुषार्थ एंव चतुर्थ सन्यासियों का मूल कहा गया हैं१८० | मोक्ष पुरुषार्थ की प्राप्ति पर जीव पुर्नजन्म आवागमन से मुक्त हो जाता था। पुरुषाथों की प्राप्ति के लिए गृहस्थाश्रम एंव भिक्षुआश्रम की कल्पना की गयी है। विवाह . जैन पुराणों में प्राप्त उल्लेखों से अनुलोम विवाह प्रथा की जानकारी होती है / सम्पन्नता, शीलता एंव उत्तम परिवारीजन वर की श्रेष्ठता के सूचक थे।८२ /