________________ पुराण 86 श्रावकाचार निवृत्तिमूलक मुनिधर्म या आचार की भांति ही श्रावकाचार या धर्म कुछ प्रवृत्तिमूलक होता है। पूर्वमध्ययुगीन लौकिक एंव पारलौकिक सुखों की प्राप्ति की इच्छा तत्युगीन प्रवृत्तिमूलक धर्म की विशेषता है। धर्म द्वारा ही लौकिक एंव पारलौकिक सुखों की प्राप्ति होती है। जैन संध मुनि, आर्यिका, श्रावक एंव श्राविका इन चार भागों में विभक्त था। श्रावक संध ही मुनि संघ का आधार है। जैन श्रमणों एंव तीर्थकरों ने श्रावकाचार के अन्तर्गत बारह प्रकार के व्रतों का उपदेश दिया। इन बारह व्रतों में पॉच अणुव्रतों, चार शिक्षाव्रतों एंव तीन गुणव्रतों का पालन करना होता पॉच अणुव्रतों५७ अहिंसा, अमृषा, अस्तेय, अमैथुन एंव अपरिग्रह का जैन श्रावकों के लिए करना आवश्यक बतलाया गया है जिनका उल्लेख मुनियों के पाँच महाव्रतों के साथ किया जा चुका है। गुणव्रत श्रावकों को तृष्णा एंव संचयवृत्ति पर नियन्त्रण, इन्द्रियलिप्सा का दमन एंव दानशील बनने के लिए अणुव्रतों के साथ गुणव्रतों का पालन करना आवश्यक बतलाया गया है। दिग्व्रत, देशव्रत, एंव अनर्थदण्ड से तीन गुणव्रतों का उल्लेख जैन पुराणों में प्राप्त होता है२५ / दसों दिशाओं में गमनागमन, आयात निर्यातादि अपने कार्य कलापों को सीमित करना दिग्वत नामक गुणव्रत है। दिग्व्रत के अन्दर समुद्र, नदी, पहाड़ी, पर्वत व ग्राम एंव दूरी प्रमाण के अनुसार सीमाएँ बाँधकर अपना सम्बन्ध कुछ विशेष स्थानों से रखना देशव्रत गुणव्रत है। अनर्थदण्ड गुणव्रत को धारण करने पर पापात्मक चिन्तन एंव उपदेश, अपध्यान, प्रमादाचरित, हिंसादान एंव दुःश्रुति इन पाँच अनर्थदण्डों का गृहस्थ सर्वथा त्याग करता है। इन तीन व्रतों के पालन करने से मूलव्रतों के गुणों में वृद्धि होती है इसी कारण इन्हें गुणव्रत कहा जाता है२५६ | शिक्षाव्रत जैन पुराणें में प्रयत्नपूर्वक सामायिक करना, प्रौषधोपबास धारण करना, अतिथि संविभाग और आयु के क्षय होने पर सल्लेखना धारण करना, इन चार शिक्षाव्रतों का उल्लेख किया गया है२६० | सामाजिक व्रत में गृहस्थ को प्रतिदिन मध्यान्ह एंव सन्ध्या में कुछ समय तक मन, वचन एंव कर्म को स्थिर रखकर परमात्मा एंव मोक्ष आदि आध्यात्मिक चिन्तन करना होता है।