________________ 130 . जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास अहिंसा . अहिंसा को जैनधर्म का प्राण माना गया है। किसी प्राणी को प्राणहीन करना द्रव्य हिंसा एंव मन में किसी जीव की हिंसा का विचार करना भाव हिंसा है"। मुनियों को हिंसा पूर्णरुपेण त्याज्य करने एंव श्रावक को संकल्पी हिंसा पूर्णरुपेण त्याज्य करने एंव आरम्भी, उद्योगी, विकल्पी हिंसा को परिस्थिति के अनुसार त्याज्य करन का निर्देश दिया गया है२१२ | तीर्थकर नेमिनाथ द्वारा विवाहोत्सव में पशुवध रोकने के उल्लेख मिलते हैं१३ / यशस्तिलक चम्पू से प्राणीमात्र को अभय दान देने एंव उसके विशेष फल की जानकारी होती है२१४ | सत्य सत्याणुव्रत आत्मपरिणामों की शुद्धि एंव स्व एवं परकीय पीड़ारुप हिंसा का निवारण ही है२१५|. अस्तेय जैनधर्म में भिक्षु के लिए, आवश्यक, अधिकृत एंव वाधारहित वस्तु को ही लेने का निर्देश दिया गया है जिससे भिक्षुवर्ग में पूर्ण निस्पृहता बनी रहे। ब्रह्मचर्य जैनधर्म के अन्तर्गत मोक्ष को सच्चा सुख माना गया है इसी कारण प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर उन्मुख होने के लिए ब्रह्मचर्य व्रत पर अधिक बल दिया गया है। अपरिग्रह __ अपरिग्रहाणुव्रत से तात्पर्य सांसारिक वस्तुओं से लिप्सा ममत्वभाव आदि को दूर करना है क्योंकि ये धार्मिक कियाकलापों में बाधक होते हैं। धर्माचार्यो द्वारा दिये गये उपदेशों से प्रभावित होकर राज्यभार छोड़कर जिन दीक्षा ग्रहण करना उनकी अपरिग्रहवृत्ति को स्पष्ट करता है२१८ | गुणव्रत अणुव्रतों के साथ ही तृष्णा एंव संचयवृत्ति पर नियन्त्रण रखने, इन्द्रिय लिप्सा का दमन करने के लिए गुणव्रतों की जानकारी होती है१६ ।“दिग्वत' - गमनागमन, आयात निर्यात की सीमा निश्चित करने को "दिग्व्रत कहा गया है / इसी तरह आयात निर्यात की निश्चित सीमा के अन्तर्गत व्यापार कार्य करना