________________ c जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास चरितकाव्यों से आर्य देशों एंव उनकी नगरियों की जानकारी होती है। तीर्थकरों, चक्रवर्तियों, वासुदेवों एंव बलभद्रों के जन्म इन्हीं आर्य देशों में होने के उल्लेख मिलते हैं। उर्ध्वलोक उर्ध्वलोक को तिर्यगलोक पर स्थित एंव नौ सौ योजन कम सात रज्जु प्रमाण वाला बतलाया गया है। उर्ध्वलोक में बारह देवलोक, नौ ग्रैवैयक एंव पॉच अनुत्तर विमान एंव एक सिद्धशिला होने की जानकारी होती है। इन देवलोकों में राजलोक होने एंव देवलोकों की स्थिति विस्तार, एंव इनमें रहने वाले देवों की जानकारी होती है। ज्योर्तिलोक चरितकाव्यों से चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि से युक्त ज्योतिलोंक की जानकारी होती है। यह त्योतिर्लोक रत्नप्रभा के तल के ऊपर दस कम आठ सौ योजन दूरी पर स्थित हैं इसका विस्तार एक सौ दस योजन हैं। इसमें सबसे अग्र सीमा पर तारे स्थित है उनसे दस योजन ऊपर सूरज एंव सूरज से अस्सी योजन ऊपर चन्द्रमा स्थित हैं।६० / मेरुपर्वत से ग्यारह सौ योजन दूर मेरुपर्वत को न छता सभी दिशाओं में व्याप्त मंडलाकृति ज्योतिष चक्र फिरता रहता है। केवल एक ध्रुवतारा निश्चल रहता है। नक्षत्रों में सबसे नीचे भरणी नक्षत्र, सबसे ऊपर स्वाति नक्षत्र एंव दक्षिण में मूल नक्षत्र एंव उत्तर में अभिजित नक्षत्र की स्थिति ज्ञात होती है। चरितकाव्यों से ज्ञात होता है कि इन चन्द्र एंव सूर्य की संख्या भिन्न भिन्न द्वीपों में भिन्न भिन्न होती है। प्रत्येक चन्द्रमा के साथ अट्ठासी ग्रह, अट्ठासी नक्षत्र एंव छयासठ हजार नौसौ पचहत्तर कौटा कोटि ताराओं के समूह होने एंव इनके विमानों के विस्तार की जानकारी होती है। इनके विमानों के नीचे पूर्व की तरफ सिंह, दक्षिण की तरफ हाथी पश्चिम की तरफ बैल एंव उत्तर की तरफ घोड़े हैं ये चन्द्रादिक विमानों के वाहन है। त्रिश०पु० चरित से ज्ञात होता है कि आभियोगिक देवता हाथी, सिंह आदि का रुप धारण करके वाहन रुप में रहते हैं। स्वभाव से ही गतिशील होने पर भी सूरज एंव चन्द्र के सोलह हजार, ग्रह के आठ हजार, तारे के दो हजार बाहनभूत आभियोगिक देव होने की जानकारी होती है१६३ इस तरह यह आकृति वाला लोक न तो किसी के द्वारा बनाया गया है न धारण ही किया गया है यह स्वतंन्त्र रुप से आकाश में स्थित हैं।६४ /