________________ 60 जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास प्रौषधोपवास के अन्तर्गत प्रत्येक अष्टमी एंव चतुर्दशी को गृह व्यापारादि एंव खानपान त्यागकर जप एंव स्वाध्याय में दिन व्यतीत करना आवश्यक माना गया त्रयरत्नों से युक्त एंव परिग्रह से रहित मुनि पहले बिना समय निर्दिष्ट किये गृहस्थ के घर जाता है तब वह अतिथि कहलाता है। ऐसे अतिथियों को प्रेमपूर्वक अपनी सामर्थ्य के अनुसार लोभरहित होकर भोजन कराने एंव उपकरण आदि देना अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत कहलाता है२६२ | समाधिमरण शिक्षाव्रत मुनि एंव गृहस्थ दोनों के लिए ही आवश्यक बतलाया गया है। मुनि एंव श्रावक सभी मनोविकारों से मुक्त होकर, शुद्ध मन के द्वारा अपने सभी पापों का प्रायश्चित करके एंव महाव्रतों को अपनाकर समाधिमरण कर लेते हैं२६३ | सल्लेखना प्रायः मुनि अवस्था प्राप्त होने पर की जाती है। ग्यारह प्रतिमाएँ गृहस्थ को छोड़ने में असमर्थ श्रावक एंव श्राविकाओं के लिए जैन धर्म में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का स्थान दिया है। जिनमें श्रावक एंव श्राविकाएं अपने श्रावकाचार का पालन करती।। 1, दर्शन 2, व्रत 3, सामायिक 4, प्रोषधोपवास 5, संचित त्याग प्रतिमा 6, ब्रह्मचर्य प्रतिमा 7, आरम्भ त्याग प्रतिमा 8, परिग्रहत्याग प्रतिमा 6, अनुमति त्याग प्रतिमा 10, उदिष्ट त्याग प्रतिमा एंव 11, दिवामैथुन त्याग प्रतिमायें है२६४ | बारह अनुप्रेक्षाएं पुराणों में श्रावक के अनासक्ति योग के लिए बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाएं बतलायी गयी है। कृष्ण के प्राणरहित होने पर अखण्डचरित के धारक बल्देव द्वारा अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन करने के उल्लेख प्राप्त होते हैं२६५ | अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्त्रव, संवर, संसार, त्रिलोक, निर्जरा, दासधर्म एंव बोधि अनुप्रेक्षाये बारह अनुप्रेक्षाएं हैं२६६ | __इन अनुप्रेक्षाओं द्वारा संसार को क्षणभंगुर बताकर, कषायों से रहित होकर सत्कर्मों को करने का उपदेश दिया गया है। क्योंकि अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन द्वारा ही बाइस परीषद रुपी शत्रुओं को जीता जा सकता है२६७ | पंच परमेष्ठी एंव पूजा जैन धर्म के अर्न्तगत अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एंव साधु को पंच परमेष्ठी कहा गया है। आदिपुराण में लोकोत्तम परमेष्ठी एंव अरहन्त परमेष्ठी का