________________ 86 जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास दुख देने एंव लोभ की जड़ है२३१ / ___ श्रावकों के लिए इस अणुव्रत का पालन आवश्यक बतलाया है२३२ | इस व्रत द्वारा जैन समाज में सत्यता ईमानदारी एंव निस्पृहता की स्थापना करने का प्रयत्न किया गया है। ब्रह्मचर्य जैन भिक्षु अन्तरंग एंव बहिरंग सभी प्रकार के अपरिग्रह के त्यागी होते हैं। पूर्वभोगों की स्मृति, स्त्रियों की संगति एंव गरिष्ठ भोजनादि, विलासी वस्तुओं का पूर्णरुपेण परित्याग करके एकान्त सेवन आवश्यक बतलाया गया है२३३ / क्योंकि ब्रह्मचर्य ही उत्तम तपस्या, नियम, ज्ञान, चरित्र, संयम एंव विनय का मूल है२३४ | जैन धर्म पुरुषों एंव स्त्रियों को काम वासनाओं पर नियन्त्रण रखने का उपदेश देता है। परस्त्रियों में राग छोड़कर अपनी स्त्रियों में ही सन्तोष करना ब्रह्मचर्याणुव्रत है३५ | अपरिग्रह सांसारिक वस्तुओं एंव आभ्यन्तर काम, कोध, मद, मोह आदि भावों का त्याग ही अपरिग्रह महाव्रत है। सजीव या निर्जीव वस्तुओं का संग्रह करने या कराने से दुख प्राप्त होते हैं२३६ | न्यायोचित धन में सन्तुष्ट रहने एंव स्वर्ण दास, गृह, खेत आदि पदार्थो के परिमाण बुद्धिपूर्वक कर लेना ही श्रावकों का अपरिग्रहाणुव्रत है३७ // पाँच समिति पौराणिक साहित्य से ज्ञात होता है कि महाव्रतो के पालन के साथ ही जैन श्रमण एंव श्रावकों को पॉच समिति - ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान, निक्षेपण एंव उत्सर्ग का पालन करना आवश्यक था३८ | तीन गुप्तियाँ राग, काम, क्रोध आदि विषयों से आने वाले दोषों से जैन भिक्षु अपनी रक्षा करते थे। वे तीर्थकरों की स्तुति के साथ ही दोषों के शोधन, तप की वृद्धि एंव कमों की निर्जरा के लिए कायोत्सर्ग करते। इसके लिए मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, एंव काय गुप्ति का पालन अनिवार्य होता था२३६ |