________________ अध्याय -3 जैन इतिहास का विषय और विकास जैन परम्परा में कालक्रम विभाजन के अन्तर्गत उत्सर्पिणी अवसर्पिणी, युगों का वर्णन पाया जाता है। उत्सर्पिणी युग में किस तरह से क्रमशः नैतिकता का अभ्युदय एंव अवसर्पिणी युग में नैतिकता के हास एंव परिणामस्वरुप बहुत सी नई चीजों के प्रकाश में आने की बात परवर्ती साहित्य में प्राप्त होती है। ग्रहों एंव नक्षत्रादिकों के प्रकाश में आने के परिणामस्वरुप जनता का उनसे भयभीत होना एंव भय त्रण हेतू अपने समकालीन कुल करके पास जाने एंव भयमुक्त होने की जानकारी होती है / अन्तिम कुलकर नाभि के पुत्र ऋषभदेव के समय भोगभूमि के नष्ट होने पर ऋषभ द्वारा प्रजा को उपदेश कर, कर्मभूमि की स्थापना कर प्रजा को कर्म करने के लिए प्रेरित करने की कथाएँ प्राप्त होती हैं। कर्मभूमि के प्रादुर्भाव के साथ ही साथ समाज एंव सामाजिक जीवन से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों का लोगों को ज्ञान होने के साथ ही जैन इतिहास के प्रारम्भ का सूत्रपात होता है। जैन इतिहास के मूल एंव प्रारम्भिक स्तर में आदि तीर्थकर ऋषभदेव एंव उनके वंश से सम्बन्टि त वंशानुगतों के चरित्र एंव कियाकलापों का वर्णन पाया जाता है। जैन मान्यता के अनुसार ऋषभ के बाद एंव महावीर से पहले बाइस और तीर्थकंर के होने की बात ज्ञात होती है। जैन धर्म में इन तीर्थकरों का भी महत्व अन्तिम तीर्थकर महावीर की ही भांति स्वीकार किया गया है। सभी ने अपने अपने समय के अनुकूल जैन धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों का प्रचार, प्रसार एंव परिवर्द्धन किया। अन्तिम तीर्थकर पार्श्वनाथ एंव महावीर को ऐतिहासिक पुरुष के रुप में स्वीकार किया गया है। पार्श्व के द्वारा उपदिष्ट धर्म के स्वरुप में कुछ और चीजें महावीर के द्वारा जोड़ी गयी / तत्कालीन मान्यता एंव आवश्यकता के परिवेश में ही महावीर के द्वारा संशोधन एंव परिवर्द्धन प्रस्तुत किया गया होगा। ___“जिन" उपाधि जैनों के अन्तिम तीर्थकर महावीर के लिए प्रयुक्त हुयी थी जिन्होंने इन्द्रियों को जीत लिया था। “जिन" शब्द उन स्त्री पुरुषों के लिए भी व्यवहृत पाया जाता है जिन्होंने इन्द्रियों का दमन कर अन्तिम सत्य का साक्षात्कार कर लिया है। अतएव जैन इतिहास लेखकों का विषय इन जिनात्मा एंव तीर्थकरों द्वारा समय समय पर दिये गये उपदेशों का वर्णन करना है क्योंकि ये उपदेश जैनधर्म एंव दर्शन के सिद्धान्तों को स्थायी रुप प्रदान करना था। यह उन्हें लिखित रुप प्रदान करके ही सम्भव था क्योंकि प्रारम्भ में जब जैन आगमों का ज्ञान श्रुत परम्परा से चला आ