________________ 58 जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास जानकर सांसारिक जीवन को त्यागकर भिक्षु जीवन व्यतीत करते थे / जैन धर्म के अन्तर्गत यह निवृत्ति ही निर्ग्रन्थ धर्म का मूल है | स्थानांग-सूत्र के अन्तर्गत वैराग्य के दस कारण बतलाये गये हैं | आगमों से राजाओं द्वारा भी भावुकतावश एंव परम्परागत आधार पर दीक्षा लेने की जानकारी होती है / सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय एंव ब्रह्मचर्य का जीवन व्यतीत करते हुए त्रयरत्नों का पालन करते थे। इसके साथ ही अन्तरंग एंव बहिरंग बारह प्रकार के तप एंव संवर और निर्जरा, गुप्ति एंव समितियों के द्वारा कर्मबन्धनों से मुक्ति प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करते थे। व्रत संयम आगम साहित्य में जैन श्रमणों के लिए आवश्यक व्रत संयम आदि से सम्बन्धित नियमों का उल्लेख किया गया है, जिनका पालन करना अत्यन्त कठिन था३ / आहार लेते समय उन्हें बिना स्वाद का आस्वादन लेने४ एंव कठोरतप करने में शरीर के शोषण का ध्यान न देने का निर्देश दिया गया है५ | चिलात मुनि द्वारा की गयी कठोर तपस्या की जानकारी आगम साहित्य से होती है | __ श्रमण निर्ग्रन्थ भिक्षा द्वारा जीवन यापन करते एंव प्रतिदिन केश लोच करते थे। रात्रिभोजन त्याग, स्थावर एंव त्रस जीवों की रक्षा, अभवय वस्तुओं का त्याग, गृहस्थ के पात्र में भोजन करने का त्याग, पयंक आसन, स्नान एंव शरीरभूषा का त्याग आदि व्रत संयमों का पालन उनके लिए आवश्यक था | गमनागमन श्रमण एक स्थान से दूसरे स्थान पर धर्मोपदेश करते थे इस गमनागमन में मार्गजन्य कष्टों के कारण जंगलों में पथभ्रष्ट होना, दुर्गम रास्तों पर चलना, चोर डाकुओं एंव जंगली जातियों के उपद्रव, प्राकृतिक प्रकोप एंव जंगली जानवरों आदि से उत्पन्न कठिनाईयों का सामना जैन श्रमणों को करना पड़ता था। दीक्षा उदारवादी प्रकृति होने के कारण निर्ग्रन्थ श्रमणों की दीक्षा लेने का सबको समान अधिकार था / लेकिन कुछ परिस्थितियों में जैसे नपुंसकता, वातरोगी, बाल, वृद्ध, जड़, राजापकारी, ऋणग्रस्त एंव गर्भावस्था वाली को दीक्षा लेने का निषेध था | फिर भी कुछ विशेष परिस्थितियों में बाल, वृद्ध, गर्भवती२ को प्रवज्या लेने का अधिकार प्राप्त था। . जैन धर्म के अन्तर्गत प्रवज्या (दीक्षा) ग्रहण करने के लिए माता पिता अथवा अभिभावकों की स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक था।